प्रभु तुम मेरे मन की जानो - सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता

Mr. Parihar
0

 प्रभु तुम मेरे मन की जानो - सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताएँ


मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।

 किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

 प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।

 यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥


 इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।

 तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥

 तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।

 जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

 मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।

 और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥

 मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।

 मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥


 तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?

हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?

मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।

 बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥


 कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।

 दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥

 मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।

 यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥


 यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।

 यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥

 ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।

 किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥


 मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।

 जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥

 वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।

 और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥


 तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।

 छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)