भय बिनु होइ न प्रीति दोहा अर्थ सहित

Mr. Parihar
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बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥

भावार्थ:-इधर तीन दिन बीत गए, किंतु जड़ समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती. 


 भय बिनु होइ न प्रीति विस्तार से वर्णन 

प्रभु श्रीराम का जीवन आदर्श और कर्तव्यों पर आधारित है इसलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है। रामचरित मानस के द्वारा तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम के जीवन से उनके आदर्शों को सीखने का संदेश दिया है। लंका चढ़ाई के समय श्रीराम ने विनयपूर्वक समुद्र से मार्ग देने की गुहार लगाई। समुद्र से आग्रह करते हुए श्रीराम को तीन दिन बीत गए। लेकिन समुद्र का उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, तब भगवान राम समझ गए कि अब अपनी शक्ति से उसमें भय उत्पन्न करना अनिवार्य है। वहीं लक्ष्मण तो पहले से ही आग्रह के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि वे श्रीराम के बाण की अमोघ शक्ति से परिचित थे। वे चाहते थे कि उनका बाण समुद्र को सुखा दे और सेना सुविधा से उस पार शत्रु के गढ़ लंका में पहुंच जाए।



इस घटना को श्री रामचरित मानस में तुलसी दास ने समुद्र को जड़ बताते हुए इस प्रकार लिखा है -

विनय न मानत जलधि जड़, गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होइ न प्रीति।।


प्रभु श्रीराम समुद्र के चरित्र को देखकर ये समझ गए कि अब आग्रह से काम नहीं चलेगा, बल्कि भय से काम होगा। तभी श्रीराम ने अपने महा-अग्निपुंज-शर का संधान किया, जिससे समुद्र के अन्दर ऐसी आग लग गई कि उसमें वास करने वाले जीव-जन्तु जलने लगे। तब समुद्र प्रभु श्रीराम के समक्ष प्रकट होकर हाथ में अनेक बहुमूल्य रत्नों का उपहार ले अपनी रक्षा के लिए याचना करने लगा और कहने लगा कि वह पंच महाभूतों में एक होने के कारण जड़ है। अतः श्रीराम ने शस्त्र उठाकर उसे उचित सीख दी। रामायण की कथा से हमें यह सीख मिलती है कि यदि आग्रह से जब काम न बने तो फिर भय से काम निकाला जाता है।

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