शुंग राजवंश: इतिहास तथा उत्पत्ति | Sunga Dynasty: History and Origin in Hindi.
शुंग राजवंश का इतिहास (History of Sunga Dynasty):
जिस महत्वाकांक्षी व्यक्ति ने 184 ईसा पूर्व में अन्तिम मौर्य शासक बृहद्रथ की जीवन-लीला समाप्त की वह इतिहास में पुष्यमित्र के नाम से विख्यात है । उसने जिस नवीन राजवंश की स्थापना की वह ‘शृंग’ नाम से जाना जाता है
इनका विवरण इस प्रकार है:
1. साहित्य:
i. पुराण:
पुराणों में मत्स्य, वायु तथा ब्राह्मांड विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं । पुराणों से पता चलता है कि पुष्यमित्र शुंग वंश का संस्थापक था । पार्जिटर मत्स्य-पुराण के विवरण को प्रामाणिक मानते हैं । इसके अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक राज्य किया था ।
ii. हर्षचरित:
इसकी रचना महाकवि बाणभट्ट ने की थी । इससे पता चलता है कि पुष्यमित्र ने अन्तिम मौर्य नरेश बृहद्रथ की हत्या कर सिंहासन पर अधिकार कर लिया । हर्षचरित उसे ‘अनार्य’ तथा ‘निम्न उत्पत्ति’ का बताता है ।
iii. पतंजलि का महाभाष्य:
पतंजलि पुष्यमित्र शुंग के पुरोहित थे । उनके ‘महाभाष्य’ में यवन आक्रमण की चर्चा हुई है जिसमें बताया गया है कि यवनों ने साकेत तथा माध्यमिका को रौंद डाला था ।
iv. गार्गी संहिता:
यह एक ज्योतिष ग्रन्थ है । इसके युग-पुराण खण्ड में यवन आक्रमण का उल्लेख मिलता है जहाँ बताया गया है कि यवन आक्रान्ता साकेत, पंचाल, मथुरा को जीतते हुए कुसुमध्वज (पाटलिपुत्र) के निकट तक जा पहुँचे ।
v. मालविकाग्निमित्र:
यह महाकवि कालीदास का नाटक ग्रंथ है । इससे शुंगकालीन राजनैतिक गतिविधियों का ज्ञान प्राप्त होता है । पता चलता है कि पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल था तथा उसवे विदर्भ को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया था । कालिदास यवन-आक्रमण का भी उल्लेख करते हैं जिसके अनुसार अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र ने सिंधु सरिता के दाहिने किनारे पर यवनों को पराजित किया था ।
vi. थेरावली:
इसकी रचना जैन लेखक मेरुतुंग ने किया था । इस ग्रन्थ में उज्जयिनी के शासकों की वंशावली दी गयी है । यहाँ पुष्यमित्र का भी उल्लेख मिलता है तथा बताया गया है कि उसने 30 वर्षों तक राज्य किया । मेरुतुंग का समय चौदहवीं शती का है । अत: उनका विवरण विश्वसनीय नहीं लगता ।
vii. हरिवंश:
इस ग्रन्थ में पुष्यमित्र की ओर परोक्ष रूप से संकेत किया गया है । तदनुसार उसे ‘औद्भिज्ज’ (अचानक उठने वाला) कहा गया है जिससे कलियुग में चिरकाल से परित्यक्त अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया था । इसमें इस व्यक्ति को ‘सेनानी’ तथा ‘काश्यपगोत्रीय ब्राह्मण’ कहा गया है । के. पी. जायसवाल इसकी पहचान पुष्यमित्र से करते हैं ।
viii. दिव्यावदान:
यह एक बौद्ध ग्रन्थ है । इसमें पुष्यमित्र को मौर्य वंश का अन्तिम शासक बताया गया है तथा उसका चित्रण बौद्ध धर्म के संहारक के रूप में हुआ है । किन्तु ये विवरण विश्वसनीय नहीं हैं ।
2. पुरातत्व:
i. अयोध्या का लेख:
यह पुष्यमित्र के अयोध्या के राज्यपाल धनदेव का है । इससे पता चलता है कि पुष्यमित्र ने दो अश्वमेध यज्ञ किये ।
ii. बेसनगर का लेख:
यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है तथा गरुड़-स्तम्भ के ऊपर खुदा हुआ है । इससे मध्य भारत के भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है ।
iii. भरहुत का लेख:
यह भरहुत स्तूप की एक वेष्टिनी पर खुदा हुआ मिलता है । इससे पता चलता है कि यह स्तूप शुंगकालीन रचना है ।
उपर्युक्त लेखों के अतिरिक्त साँची, बेसनगर, बोधगया आदि के प्राप्त स्तूप एवं स्मारक शुंगकालीन कला एवं स्थापत्य की उत्कृष्टता का ज्ञान कराते हैं । शुंगकाल की कुछ मुद्रायें कौशाम्बी, अयोध्या, अहिच्छत्र तथा मथुरा से प्राप्त होती हैं । इनसे भी तत्कालीन इतिहास पर कुछ प्रकाश पड़ता है ।
पुष्यमित्र शुंग |
शुंग राजवंश की उत्पत्ति (Origin of Sunga Dynasty):
शुंग वंश के राजाओं के नामों के अन्त में ‘मित्र’ शब्द जुड़ा देखकर महामहोपाध्याय पं. हर प्रसाद शास्त्री ने यह मत प्रतिपादित किया था कि वे वस्तुतः पारसीक थे तथा ‘मिथ्र’ (सूर्य) के उपासक थे । परन्तु भारतीय साक्ष्यों के आलोक में यह मत सर्वथा त्याज्य है ।
हर्षचरित में पुष्यमित्र को ‘अनार्य’ कहा गया है । कुछ विद्वान इस आधार पर शुंगों को निम्न जातीय कहते हैं । किन्तु यह मान्यता उचित नहीं है । वस्तुतः बाण ने पुष्यमित्र के कार्य (अपने स्वामी की धोखे से हत्या) को निन्दनीय माना है इसी कारण उसे ‘अनार्य’ कहा है ।
उनका यह संबोधन जाति का सूचक नहीं माना जा सकता । दिव्यावदान शुंगों को मौर्यों से संबद्ध करता है । इस आधार पर कुछ लोग शुंग कुल को भी क्षत्रिय मानने के पक्षधर हैं । किन्तु दिव्यावदान का कथन ऐतिहासिकता से परे है ।
भारतीय साहित्य शुंगों को ब्राह्मण मानता है । पुराण पुष्यमित्र को शुंग कहते हैं । ‘शुंग’ वंश को महर्षि पाणिनि ने ‘भारद्वाज गोत्र का ब्राह्माण’ बताया है । मालविकाग्निमित्र में पुष्यमित्र के पुत्र अग्निमित्र को ‘बैम्बिक कुल’ से सम्बन्धित किया गया है ।
बौद्धायन श्रौतसूत्र से पता चलता है कि ‘बैम्बिक’ काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे । इस प्रकार चाहे पुष्यमित्र शुंग रहा हो अथवा बैम्बिक, वह स्पष्टतः ब्राह्मण जातीय था । तारानाथ ने भी उसे ब्राह्मण जाति का बताया है जिसके पूर्वज पुरोहित थे । हरिवंश में पुष्यमित्र को काश्यप गोत्रीय ‘द्विज’ कहा गया है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि शुंग पहले मौर्यों के ही पुरोहित थे । अनेक प्राचीन ग्रन्थ शुंग आचार्यों का उल्लेख करते हैं । आश्वलायन श्रौतसूत्र में शुंगों का उल्लेख आचार्यों के रूप में मिलता है । बृहदारण्यक उपनिषद् में ‘शौंगीपुत्र’ नामक एक आचार्य का उल्लेख है ।
इस प्रकार शुंग ब्राह्मण पुरोहित ही थे । अशोक द्वारा यज्ञों पर रोक लगा दिये जाने पर उन्होंने पौरोहित्य कर्म त्यागकर सैनिक वृत्ति अपना लिया । उनका शस्त्र ग्रहण प्राचीन परम्परा के अनुकूल था । वर्ण-धर्म के प्रबल पोषक मनु के अनुसार धर्म पर संकट आने पर ब्राह्मण भी शस्त्र धारण कर सकते हैं ।
कण्व राजवंश:
शुंग वंश का अन्तिम राजा देवभूति अत्यन्त निर्बल तथा विलासी था । वह अपने शासन के अन्तिम दिनों में अपने अमात्य वसुदेव के षड्यन्त्रों द्वारा मार डाला गया ।
हर्षचरित में इस घटना का वर्णन इस प्रकार हुआ है- ‘शुंगों के अमात्य वसुदेव ने रानी के वेष में देवभूति की दासी की पुत्री द्वारा स्त्री-प्रसंग में अति आशक्त एवं कामदेव के वशीभूति देवभूति की हत्या कर दी ।’
विष्णु पुराण में भी इस घटना की पुष्टि इस प्रकार की गयी है- “व्यसनी शुंग वंश के राजा देवभूति को उसका अमात्य कण्व वसुदेव मारकर पृथ्वी पर शासन करेगा ।”
वसुदेव ने जिस नवीन राजवंश की नींव डाली वह ‘कण्व’ अथवा ‘कण्वायन’ नाम से जाना जाता है । शुंगों के समान यह भी एक ब्राह्मण वंश था । वैदिक धर्म एवं संस्कृति संरक्षण की जो परम्परा शुंगों ने चलाई थी वह इस समय भी कायम रही ।
दुर्भाग्यवश इस वंश के राजाओं के नाम के अतिरिक्त हमें उनके राज्यकाल की किसी भी घटना के विषय में ज्ञात नहीं है । पुराणों में वर्णन मिलता है कि इस वंश में राजा सत्य और न्याय के साथ शासन करेंगे और पड़ोसियों को दबाकर रखेंगे ।
वसुदेव ने कुल नौ वर्षों तक राज्य किया । उसके पश्चात् तीन राजा हुए- भूमिमित्र, नारायण तथा सुशर्मा जिन्होंने क्रमशः चौदह, बारह तथा दस वर्षों तक राज किया । सुशर्मा इस वंश का अन्तिम शासक था ।
वायुपुराण के अनुसार वह अपने आन्ध्रजातीय भृत्य शिमुख (सिन्धुक) द्वारा मार डाला गया । सुशर्मा की मृत्यु के साथ ही कण्व राजवंश तथा शासन की समाप्ति हुई । इस वंश के चार राजाओं ने ईसा पूर्व 75 से ईसा पूर्व 30 के लगभग तक शासन किया ।