Pushyamitra Sunga History in Detail In Hindi :- Achievements and Wars।। पुष्यमित्र शुंग राजवंश का इतिहास विस्तार में

Mr. Parihar
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पुष्यमित्र शुंग: उपलब्धियाँ तथा युद्ध | Pushyamitra Sunga: Achievements and Wars. Read this article in Hindi to learn about:-
 1. पुष्यमित्र के उपलब्धियाँ (Achievements of Pushyamitra)
 2. पुष्यमित्र द्वारा लड़ी गयी युद्ध (Wars Fought by Pushyamitra) 
3. साम्राज्य तथा शासन (Empire and Rule) 4. उत्तराधिकारी (Successor).

पुष्यमित्र के उपलब्धियाँ (Achievements of Pushyamitra):

पुष्यमित्र अन्तिम मौर्य नरेश बृहद्रथ का प्रधान सेनापति था । उसके प्रारम्भिक जीवन के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । दिव्यावदान से पता चलता है कि वह पुष्यधर्म का पुत्र था । सभी साधन उसके इतिहास का प्रारम्भ जीवन से ही करते हैं ।
ज्ञात होता है कि एक दिन सेना का निरीक्षण करते समय बृहद्रथ की उसने धोखे से हत्या कर दी । पुराणों तथा वाणभट्ट के हर्षचरित दोनों में इस घटना का उल्लेख हुआ है । पुराणों में ‘सेनानी पुष्यमित्र बृहद्रथ की हत्या कर 36 वर्षों तक राज्य करेगा,’ ऐसा उल्लेख मिलता है ।

हर्षचरित में इस घटना का वर्णन इस प्रकार हुआ है- ‘अनार्य सेनानी पुष्यमित्र ने सेना दिखाने के बहाने अपने प्रज्ञादुर्बल (बुद्धिहीन) स्वामी बृहद्रथ की हत्या कर दी ।’
पुराण, हर्षचरित तथा मालविकाग्निमित्र सभी में पुष्यमित्र के लिये ‘सेनानी’ अर्थात् सेनापति की उपाधि का ही प्रयोग मिलता है जबकि उसके पुत्र अग्निमित्र को ‘राजा’ बताया गया है ।
इस आधार पर कुछ विद्वानों का विचार है कि पुष्यमित्र कभी राजा नहीं बना तथा बृहद्रथ को पदच्युत करने के पश्चात् उसने अपने पुत्र को ही राजा बना दिया था । किन्तु इस प्रकार का विचार तर्कसंगत नहीं लगता ।
हमें ज्ञात है कि पुष्यमित्र ने स्वयं दो अश्वमेध यज्ञ किये । इसे प्राचीन भारत में राजसत्ता का प्रतीक माना गया था । इसी से स्पष्ट है कि उसने राज्यभार ग्रहण किया था ।
जहाँ तक ‘सेनानी’ उपाधि का प्रश्न है, ऐसा लगता है कि दीर्घकाल तक मौर्यों की सेना का सेनापति होने के कारा पुष्यमित्र की ख्याति इसी रूप में अधिक थी तथा राजा बन जाने के बाद भी उसने अपनी यह उपाधि बनाये रखी ।
अत: मात्र इसी आधार पर यह प्रतिपादित करना उचित नहीं होगा कि उसने कभी भी राजत्व प्राप्त नहीं किया था । परवर्ती मौर्यों के निर्बल शासन में मगध का प्रशासन तन्त्र शिथिल पड़ गया था तथा देश को आन्तरिक एवं वाह्य संकटों का खतरा था ।
ऐसी विकट परिस्थिति में पुष्यमित्र शुंग ने मगध सम्राज्य पर अपना अधिकार जमाकर जहाँ एक और यवनों के आक्रमण से देश की रक्षा की वहीं दूसरी ओर देश में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना कर वैदिक धर्म एवं आदर्शों की, जो अशोक के शासन-काल में उपेक्षित हो गये थे, पुन: प्रतिष्ठा की । यही उनकी महानता का रहस्य है और इसी कारण उसका काल वैदिक प्रतिक्रिया अथवा वैदिक पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है ।

पुष्यमित्र द्वारा लड़ी गयी युद्ध (Wars Fought by Pushyamitra):

i. विदर्भ युद्ध:
मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र के समय में विदर्भ (आधुनिक बरार) का प्रान्त यज्ञसेन के नेतृत्व में स्वतन्त्र हो गया । यह यज्ञसेन बृहद्रथ के सचिव का साला था । उसे शुंगों का ‘स्वाभाविक शत्रु’ (प्रकृत्यमित्र) बताया गया है ।
पुष्यमित्र ने बृहद्रथ की हत्या के पश्चात् उसके सचिव को कारागार में डाल दिया था । इस नाटक के अनुसार पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल (उपराजा) था । उसका मित्र माधवसेन था जो विदर्भ नरेश यज्ञसेन का चचेरा भाई होता था, परन्तु दोनों के सम्बन्ध अच्छे नहीं थे ।
ऐसा लगता है कि वह विदर्भ की गद्दी के लिये यज्ञसेन का प्रतिद्वन्दी दावेदार था । एक बार विदिशा जाते समय उसे यज्ञसेन के अन्तपाल (सीमा प्रान्त के राज्यपाल) ने बन्दी बना लिया । अग्निमित्र ने यज्ञसेन से अपने मित्र माधवसेन को तत्काल मुक्त करने को कहा ।
यज्ञसेन ने यह शर्त रखी कि यदि उसका सम्बन्धी मौर्य नरेश का सचिव, जो पाटलिपुत्र के जेल में बन्द था, छोड़ दिया जाय तो वह माधवसेन को मुक्त करा देगा । इस पर अग्निमित्र ने अपने सेनापति वीरसेन को तुरन्त विदर्भ पर आक्रमण करने का आदेश दिया ।
यज्ञसेन पराजित हुआ और विदर्भ राज्य दो भागों में बाँट दिया गया । वर्धा नदी दोनों राज्यों की सीमा मान ली गयी । इस राज्य का एक भाग माधवसेन को प्राप्त हुआ । दोनों ने पुष्यमित्र को अपना सम्राट मान लिया तथा पुष्यमित्र का प्रभाव-क्षेत्र नर्मदा नदी के दक्षिण तक विस्तृत हो गया ।
इस प्रकार नाटक के अनुसार अग्निमित्र ने अल्प समय में ही विदर्भ की स्वाधीनता को नष्ट कर दिया क्योंकि उसे अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का पूरा समय नहीं मिल पाया था । वस्तुतः ‘वह नये रोपे गये पौधे की भाँति था जिसकी जड़ें अभी जमने नहीं पाई थीं और जिसे शीध्र उखाड़ा जा सकता था ।’
इससे यह भी सूचित होता है कि विदर्भ युद्ध पुष्यमित्र द्वारा मौर्य साम्राज्य पर अधिकार करने के तत्काल वाद ही प्रारम्भ हुआ था और बृहद्रथ का सचिव इस समय तक पुष्यमित्र का प्रबल राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वी बना हुआ था ।
ऐसा लगता है कि बृहद्रथ के समय में मगध साम्राज्य में दो प्रमुख गुट थे । पहले का नेतृत्व बृहद्रथ का सचिव तथा दूसरे का नेतृत्व सेनापति पुष्यमित्र कर रहा था । सचिव का सम्बन्धी यज्ञसेन विदर्भ का तथा पुष्यमित्र का पुत्र अग्निमित्र विदिशा का राज्यपाल बनाया गया था ।
जब पुष्यमित्र ने पाटलिपुत्र पर अधिकार किया तथा सचिव को बन्दीगृह में डाल दिया तब यज्ञसेन ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी क्योंकि सचिव का साला होने के कारण वह शुंगो का स्वाभाविक शत्रु वन गया । इस प्रकार विदर्भ युद्ध भी ई. पू. 184 के लगभग ही लड़ा गया था ।

ii. यवनों का आक्रमण:

पुष्यमित्र के शासन-काल की सर्वप्रमुख घटना यवनों के भारतीय आक्रमण की है । विभिन्न साक्ष्यों से पता चलता है कि यवन आक्रमणकारी बिना किसी अवरोध के पाटलिपुत्र के अत्यन्त निकट आ पहुँचे । इस आक्रमण की चर्चा पतंजलि के महाभाष्य, गार्गीसंहिता तथा कालिदास के मालविकाग्निमित्र नाटक में है ।
पतंजलि पुष्यमित्र के पुरोहित थे । अपने महाभाष्य में उन्होंने अनद्यतन लंग का प्रयोग समझाते हुए लिखा है- ‘यवनों ने साकेत पर आक्रमण किया, यवनों ने माध्यमिका (चित्तौड़) पर आक्रमण किया ।’
गार्गीसंहिता में स्पष्टतः इस आक्रमण का उल्लेख हुआ है जहाँ बताया गया है कि- ‘दुष्ट विक्रान्त यवनों ने साकेत, पञ्चाल तथा मथुरा को जीता और पाटलिपुत्र तक पहुंच गये । प्रशासन में घोर अव्यवस्था उत्पन्न हो गयी तथा प्रजा व्याकुल हो गयी । परन्तु उनमें आपस में ही संघर्ष छिड़ गया और वे मध्यदेश में नहीं रुक सके ।’
यह निश्चित नहीं कि इस यवन आक्रमण का नेता कौन था ? कुछ विद्वान उसका नेता डेमेट्रियस को तथा कुछ मेनाण्डर को मानते हैं । नगेन्द्र नाथ घोष के विचार में भारत पर दो यवन आक्रमण हुये थे, प्रथम पुष्यमित्र के शासन के प्रारम्भिक दिनों में हुआ जिसका नेता डेमेट्रियस था तथा द्वितीय उसके शासन के अन्तिम दिनों में अथवा उसकी मृत्यु के तत्काल बाद हुआ था तथा इसका नेता मेनाण्डर था ।
इसके विपरीत टार्न ने एक ही यवन आक्रमण का समर्थन किया है । उनके अनुसार इस आक्रमण का नेता डेमेट्रियस ही था परन्तु वह अपने साथ अपने भाई एपोलोडोटस तथा सेनापति मेनाण्डर को भी लाया था ।
उसने अपनी सेना को दो भागों में विभाजित कर दिया । प्रथम भाग का नेतृत्व उसने स्वयं ग्रहण किया । यह भाग सिन्धु को पार कर चित्तौड़ होता हुआ पाटलिपुत्र पहुँच गया ।
दूसरा सैन्य दल मेनाण्डर के नेतृत्व में मथुरा, पञ्चाल एवं साकेत के रास्ते पाटलिपुत्र पहुँचा । कैलाश चन्द्र ओझा के अनुसार मगध पर डेमेट्रियस अथवा मेनाण्डर के समय में कोई यवन आक्रमण नहीं हुआ ।
मध्य गंगा घाटी में यवन इन दोनों में बहुत बाद शकों तथा पह्लवों के दबाव से प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में आये थे । यदि इस मत को स्वीकार किया जाये तो यह मानना पड़ेगा कि पुष्यमित्र शुंग के समय भारत पर कोई आक्रमण नहीं हुआ था ।
एक अन्य गत के अनुसार प्रथम यवन आक्रमण मौर्य नरेश बृहद्रथ के काल में ही हुआ था तथा सेनापति के रूप में ही पुष्यमित्र ने यवनों को परास्त किया था । इससे उसकी लोकप्रियता बढ़ गयी होगी और इसी का लाभ उठाते हुए उसने बृहद्रथ की हत्या कर दी होगी ।
राजा बनने के बाद पुष्यमित्र को दूसरे यवन-आक्रमण का सामना करना पड़ा । ए. के. नरायन का विचार है कि मध्य भारत पर यवनों का एक ही आक्रमण हुआ । यह पुष्यमित्र के शासनकाल के अन्त में हुआ तथा इसका नेता मेनाण्डर था ।
उनके अनुसार डेमेट्रियस कभी भी काबुल घाटी के आगे नहीं बढ़ सका था । यह सम्पूर्ण प्रश्न इतना अधिक उलझा हुआ है कि इस विषय में निश्चित रूप से कुछ भी कह सकना दुष्कर है ।
वास्तविकता जो भी हो, इतना तो निर्विवाद है कि आक्रमणकारी बख्त्री-यवन थे और पुष्यमित्र के हाथों उन्हें परास्त होना पड़ा । इस प्रकार उनका भारतीय अभियान असफल रहा ।
मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि पुष्यमित्र के यज्ञ का घोड़ा उसके पौत्र वसुमित्र के नेतृत्व में घूमते हुये सिन्धु नदी के दक्षिणी किनारे पर यवनों द्वारा पकड़ लिया गया ।
इस पर दोनों सेनाओं में घनघोर युद्ध हुआ । वसुमित्र न यवनों को पराजित किया तथा घोड़े को पाटलिपुत्र ले आया । इस सिन्धु नदी के समीकरण के विषय में मतभेद है । रैप्सन के अनुसार यह पंजाब की सिन्धु न होकर मध्य-भारत की चम्बल की सहायक काली सिन्धु अथवा यमुना की सहायक सिन्धु है ।
रमेशचन्द्र मजूमदार इसे पश्चिमोत्तर भारत की सिन्धु नदी ही मानते है । जे. एस. नेगी ने मालविकाग्निमित्र के अन्त:साक्ष्य से उदाहरण देकर यह स्पष्ट किया है कि सिन्धु नदी से तात्पर्य वस्तुतः पश्चिमोत्तर की प्रसिद्ध सिन्धु नदी से ही है ।
उनके अनुसार विदर्भ तथा यवन युद्ध दोनों ही समकालीन घटनायें हैं । स्वयं नाटक से ही स्पष्ट होता है कि अग्निमित्र ने दोनों युद्धों में विजय का समाचार एक ही समय प्राप्त किया था ।
कालिदास ने यज्ञीय अश्व के सिन्धु नदी तक पहुँचने का समय एक वर्ष दिया है । यह सम्भव नहीं लगता कि इतनी अवधि में अश्व केवल काली सिन्धु तक ही पहुँचा होगा । पुनश्च यह भी विदित होता है कि वसुमित्र की यवन विजय का वृत्तांत अग्निमित्र को पुष्यमित्र द्वारा यज्ञशाला से लिखे गये पत्र के माध्यम से ज्ञात हुआ ।
यदि युद्ध मध्य भारत की सिन्धु नदी पर लड़ा गया होता तो इसकी जानकारी विदिशा स्थित अग्निमित्र को अवश्यमेव होती क्योंकि सिन्धु अथवा काली सिन्धु दोनों ही विदिशा के समीप ही स्थित थीं ।
नाटक में यह भी बताया गया है कि वसुमित्र की माता धारिणी अपने पुत्र के कुशल-क्षेम के लिए अत्यन्त चिन्तित थी । यदि वसुमित्र विदिशा के समीप ही अभियान पर होता तो उसका सम्पर्क अपने माता-पिता से अवश्य ही बना रहता ।
ये सभी बातें यह सिद्ध करती हैं कि वसुमित्र तथा यवनों के बीच युद्ध विदिशा से बहुत दूर हुआ था । ऐसी स्थिति में मालविकाग्निमित्र की सिन्धु नदी का समीकरण पश्चिमोत्तर भारत की प्रसिद्ध सिन्धु नदी के साथ करना ही समीचीन प्रतीत होता है । सिन्धु नदी के दक्षिणी तट से तात्पर्य उसके दाहिने किनारे से है ।
यवनों को परास्त करना निश्चित रूप से पुष्यमित्र शुंग की एक महान् सफलता थी । के. पी. जायसवाल ने हाथीगुम्फा लेख के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि कलिंगराज खारवेल ने अपने शासन के बारहवें वर्ष में ‘बहसतिमित्र’ नामक जिस मगध राजा को पराजित किया था वह पुष्यमित्र शुंग ही था ।
किन्तु सभी विद्वान इस पाठ को स्वीकार नहीं करते । खारवेल की तिथि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी की है । अत: वह पुष्यमित्र का समकालीन नहीं हो सकता । हाथीगुम्फा लेख में वर्णित मगध का राजा तथा पुष्यमित्र दोनों भिन्न-भिन्न व्यक्ति प्रतीत होते हैं । दोनों का समीकरण करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं होगा ।

पुष्यमित्र के साम्राज्य तथा शासन (Empire and Rule of Pushyamitra):

पुष्यमित्र प्राचीन मौर्य साम्राज्य के मध्यवर्ती भाग को सुरक्षित रख सकने में सफल रहा है । उसके साम्राज्य में अयोध्या तथा विदिशा निश्चित रूप से सम्मिलित थे । अयोध्या के लेख में पुष्यमित्र का उल्लेख मिलता है । विदिशा में उसका पुत्र अग्निमित्र शासन करता था ।
मालविकाग्निमित्र के अनुसार विदर्भ का राज्य उसके अधीन था । दिव्यावदान तथा तारानाथ के विवरण के अनुसार जालन्धर तथा शाकल (स्यालकोट) पर भी उसका अधिकार था ।
इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में बरार तक तथा पश्चिम में पंजाब से लेकर पूर्व में मगध तक विस्तृत था । पाटलिपुत्र अब भी इस साम्राज्य की राजधानी थी । पुष्यमित्र की शासन-व्यवस्था के विषय में हमें ज्ञात नहीं है ।
लगता है कि उसने मौर्य प्रशासन के स्वरूप को ही बनाये रखा । मनुस्मृति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सम्राट अपनी दैवी उत्पत्ति में विश्वास करता था । के. पी. जायसवाल का विचार है कि मनु ने राजा की दैवी उत्पत्ति का सिद्धान्त पुष्यमित्र के ब्राह्मण साम्राज्य का समर्थन करने के उद्देश्य में ही प्रतिपादित किया था ।
मनु के अनुसार- ‘बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिये क्योंकि वह मनुष्य रूप में स्थित महान् देवता होता है ।’ किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि शासक निरंकुश होता था । व्यवहार में वह धर्म एवं व्यवहार के अनुसार ही शासन करता था । मनु ने प्रजापालन एवं प्रजारक्षण को राजा का सर्वश्रेष्ठ धर्म घोषित किया है ।
साम्राज्य के विभिन्न भागों में राजकुमार अथवा राजकुल के सम्बन्धित व्यक्तियों को राज्यपाल नियुक्त करने की परम्परा चलती रही । वायुपुराण में कहा गया है कि पुष्यमित्र ने अपने पुत्रों को साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में सह-शासक नियुक्त कर रखा था ।
मालविकाग्निमित्र से पता चलता है कि उसका पुत्र अग्निमित्र विदिशा का उपराजा था । अयोध्या-लेख के अनुसार धनदेव कोशल का राज्यपाल था । वसुमित्र के उदाहरण से स्पष्ट है कि राजकुमार सेना का संचालन भी करते थे । मालविकाग्निमित्र में ‘अमात्य-परिषद्’ तथा महाभाष्य में ‘सभा’ का उल्लेख हुआ है । यह मौर्यकालीन मंत्रिपरिषद थी । इससे स्पष्ट है कि शासन में सहायता प्रदान करने के निमित्त एक मन्त्रिपरिषद् भी होती थी ।
कौटिल्य के समान मनु ने भी मन्त्रिपरिषद् की आवश्यकता पर बल देते हुए लिखा है कि- ‘सरल कार्य भी एक मनुष्य के लिये कठिन होता है । विशेषकर महान् फल देने वाला राज्य अकेले राजा के द्वारा कैसे चलाया जा सकता है ।’
मनु के अनुसार राजा को सात या आठ मन्त्रियों की नियुक्ति करना चाहिये । मनुस्मृति से शुंगकाल के सुविकसित न्याय तथा स्थानीय प्रशासन की भी जानकारी हो जाती है । इस समय भी ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होते थे ।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस समय तक आते-आते मौर्य-कालीन केन्दीय नियन्त्रण में शिथिलता आ गयी थी तथा सामन्तीकरण की प्रवृत्ति सक्रिय होने लगी थीं ।
शुंग काल में यद्यपि पाटलिपुत्र राजधानी थी तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि विदिशा का राजनैतिक तथा सांस्कृतिक महत्व बढ़ता जा रहा था । कालान्तर में इस नगर ने पाटलिपुत्र का स्थान ग्रहण कर लिया ।
अश्वमेध यज्ञ:
अपनी उपलब्धियों में फलस्वरूप पुष्यमित्र उत्तर भारत का एकच्छत्र सम्राट बन गया । अपनी प्रभुसत्ता घोषित करने के लिये उसने अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया । पतंजलि ने महाभाष्य में वर्तमान लट्‌लकार के उदाहरण में बताया है- ‘इह पुष्यमिंत्र याजयाम:’ अर्थात् यहाँ हम पुष्यमित्र के लिये यज्ञ करते हैं ।
अयोध्या अभिलेख में पुष्यमित्र को ‘दो अश्वमेध यज्ञों का अनुष्ठान करने वाला (द्विरश्वमेधयाजिन:) कहा गया है । ऐसा प्रतीत होता है कि जब उसने राजधानी में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली होगी तो उसने प्रथम यज्ञ किया होगा ।
दूसरा यज्ञ उसके शासन के अन्त में किया गया होगा । सम्भवत: इसी का उल्लेख मालविकाग्निमित्र में हुआ है । हरिवंश पुराण में कहा गया है कि- ‘कलियुग में एक औद्‌भिज्ज (नवोदित) काश्यप गोत्रीय द्विज सेनानी अश्वमेध यज्ञ का पुनरुद्धार करेगा ।’
धार्मिक नीति:
बौद्धग्रन्थ दिव्यावदान तथा तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के विवरणों में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का घोर शत्रु तथा स्तूपों और विहारों का विनाशक बताया गया है । दिव्यावदान से पता चलता है कि- ‘उसने लोगों से अशोक की प्रसिद्धि का कारण पूछा । इस पर उसे ज्ञात हुआ कि अशोक 84,000 स्तूपों का निर्माता होने के कारण ही प्रसिद्ध है । परिणामस्वरूप उसने 84,000 स्तूपों को विनष्ट करके प्रसिद्धि प्राप्त करने का निश्चय किया ।’
अपने ब्राह्मण पुरोहित की राय पर पुष्यमित्र ने महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं को समाप्त करने की प्रतिज्ञा की । वह पाटलिपुत्र स्थित कुक्कुटाराम के महाविहार को नष्ट करने के लिये गया परन्तु एक गर्जन सुनकर भयभीत हो गया और लौट आया ।
तत्पश्चात् एक चतुरंगिणी सेना के साथ मार्ग में स्तूपों को नष्ट करता हुआ, विहारों को जलाता हुआ तथा भिक्षुओं की हत्या करता हुआ वह शाकल पहुँचा । वहाँ उसने यह घोषणा की कि- ‘जो मुझे एक भिक्षु का सिर देगा उसे मैं 100 दीनारें दूँगा ।’
तारानाथ ने भी इसकी पुष्टि की है । क्षेमेन्द्रकृत ‘अवदानकल्पलता’ में भी पुष्यमित्र का चित्रण बौद्ध धर्म के संहारक के रूप में किया गया है । परन्तु बौद्ध लेखकों में तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने तथा अबौद्धों के अपकार्यों का काल्पनिक विवरण देने की प्रवृत्ति पायी जाती है ।
हम यह देख चुके हैं कि किस प्रकार अशोक के पूर्व बौद्धकालीन जीवन के विषय में भी ये ग्रन्थ निरर्थक वृत्तान्त प्रस्तुत करते हैं । अत: इन पर विशेष विश्वास नहीं किया जाना चाहिये । शुंगों के समय की साँची तथा भरहुत से प्राप्त कलाकृतियों के आधार पर पुष्यमित्र के बौद्ध-द्रोही होने का मत स्पष्टतः खण्डित हो जाता है ।
भरहुत की एक वेष्टिनी पर ‘सुगनंरजे….’ (शुंगों के राज्य-काल में) खुदा हुआ है । इससे शुंगों की धार्मिक सहिष्णुता का परिचय मिलता है । इस समय साँची तथा भरहुत के स्तूप न केवल सुरक्षित रहे, अपितु राजकीय तथा व्यक्तिगत सहायता भी प्राप्त करते रहे ।
कुछ विद्वानों ने यह मत रखा है कि साँची तथा भरहुत की कलाकृतियों का निर्माण पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी शासकों ने करवाया था तथा इनसे उसकी धार्मिक सहिष्णुता सिद्ध नहीं की जा सकती ।
प्रयाग विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के भूतपूर्व अध्यक्ष जी. आर. शर्मा ने बताया है कि कौशाम्बी स्थित घोषिताराम विहार में विनाश तथा जलाये जाने के चिह्न प्राप्त होते हैं जो पुष्यमित्र शुंग की असहिष्णुता के ही परिचायक हैं ।
इसके विपरीत सुप्रसिद्ध कलाविद् हेवेल का विचार है कि- ‘साँची तथा भरहुत के तोरणों का निर्माण दीर्घकालीन प्रयासों का परिणाम था जिसमें कम से कम 100 वर्षों से भी अधिक समय लगा होगा ।’
अत: हम पुष्यमित्र को अलग करके केवल उसके उत्तराधिकारियों के काल में उनके निर्माण की कल्पना नहीं कर सकते । यद्यपि इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकते तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि पुष्यमित्र द्वारा बौद्ध सम्राट की हत्या तथा ब्राह्मण धर्म को राज्याश्रय प्रदान करने के कार्यों से बौद्ध मतानुयायियों को गहरी वेदना हुई ।
संभव है कुछ बौद्ध भिक्षु शाकल में यवनों से जा मिले हों तथा उन्हीं देश-द्रोहियों का वध करने वालों को पुरस्कार देने की घोषणा पुष्यमित्र द्वारा की गयी हो । अत: साम्राज्य की सुरक्षा की दृष्टि से बौद्ध भिक्षुओं को दण्ड देना तत्कालीन समय की एक महती आवश्यकता थी ।
इस प्रकार, बौद्ध धर्म के साथ कठोर व्यवहार उसके यवनों के साथ सम्बन्धित होने के कारण ही हुआ । केवल इसी आधार पर हम पुष्यमित्र को बौद्ध द्रोही नहीं मान सकते ।
स्वयं दिव्यावदान का कथन है कि पुष्यमित्र ने कुछ बौद्धों को अपना मन्त्री नियुक्त कर रखा था । पुराणों के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक राज्य किया । अत: उसका शासन काल सामान्यतः 184 ईसा पूर्व से 148 ईसा पूर्व तक माना जा सकता है ।
पुष्यमित्र शुंग

पुष्यमित्र के उत्तराधिकारी (Successor of Pushyamitra):

पुष्यमित्र की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र अग्निमित्र शुंग वंश का राजा हुआ । अपने पिता के शासन काल में वह विदिशा का उपराजा था । उसके शासन-काल की किसी भी महत्वपूर्ण घटना के विषय में हमें पता नहीं है । उसने कुल आठ वर्षों तक राज्य किया ।
उसके पश्चात् सुज्येष्ठ अथवा वसुज्येष्ठ राजा हुआ जिसके नाम के अतिरिक्त हम उसके बारे में कुछ भी नहीं जानते । इस वंश का चौथा राजा वसुमित्र था । इसी के नेतृत्व में शुंग सेना ने यवनों को पराजित किया था ।
संभवतः वह पुष्यमित्र के समय में साम्राज्य की उत्तरी-पश्चिमी सीमा-प्रान्त का राज्यपाल था । राजा होने के बाद वह अत्यन्त विलासप्रिय हो गया । एक बार नृत्य का आनन्द लेते समय मूजदेव अथवा मित्रदेव नामक व्यक्ति ने उसकी हत्या कर दी ।
इस घटना का उल्लेख हर्षचरित में हुआ है । पुराणों के अनुसार उसने दस वर्षों तक राज्य किया । इसके बाद अन्ध्रक, पुलिन्दक, घोष तथा फिर वज्रमित्र बारी-बारी से राजा हुए जिनके शासन-काल के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है । इस वंश का नवाँ शासक भागवत अथवा भागभद्र था ।
वह कुछ शक्तिशाली राजा था । इसके शासन-काल के 14वें वर्ष तक्षशिला के यवन नरेश एन्टियालकीड्‌स का राजदूत हेलियोडोरस उसके विदिशा स्थित दरबार में उपस्थित हुआ था ।
उसने भागवत धर्म ग्रहण कर लिया तथा विदिशा (बेसनगर) में गरुड़-स्तम्भ की स्थापना कर भागवत विष्णु की पूजा की । पुराणों के अनुसार शुंग वंश का दसवाँ एवं अन्तिम नरेश देवभूति (देवभूमि) था ।
उसने 10 वर्षों तक राज्य किया । वह अत्यन्त विलासी शासक था । उसके अमात्य वसुदेव ने उसकी हत्या कर दी । देवभूति की मृत्यु के साथ ही शुंग राजवंश की समाप्ति हुई । 

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