कलाचुरी राजवंश: कलाचुरी राजवंश का इतिहास, उपलब्धियां और अस्वीकार | Kalachuri Dynasty: History, Achievements and Decline of Kalachuri Dynasty.
कलचुरि-चेदि वंश के इतिहास के साधन (Tools of History of Kalachuri Dynasty):
चन्देल राज्य के दक्षिण में चेदि के कलचुरियों का राज्य स्थित था । उसकी राजधानी त्रिपुरी में थी जिसकी पहचान मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित तेवर नाम के ग्राम से की जाती है । चेदि पर शासन करने के कारण उन्हें चेदिवंश का भी कहा जाता है । लेखों में वे अपने को हैहैयवंशी सहस्त्रार्जुन कीर्तिवीर्य का वंशज कहते हैं जिससे लगता हैं कि वे चन्द्रवंशी क्षत्रिय थे ।
कलचुरि-चेदि वंश के इतिहास को हम उसके लेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों से ज्ञात करते है ।
इस वंश के प्रमुख लेख इस प्रकार है:
(i) युवराज का विलहारी का लेख ।
(ii) लश्मणराज द्वितीय का कारीतलाई अभिलेख ।
iii) कोक्कल द्वितीय के मुकुन्दपुर तथा प्यावां के लेख ।
(iv) कर्ण का रीवा (1948-49 ईस्वी) का लेख ।
(v) कर्ण के वाराणसी तथा गोहरवा (प्रयाग) से प्राप्त ताम्रपत्र-अभिलेख ।
(vi) यश:कर्ण के खैरा तथा जबलपुर के लेख ।
कुछ लेखों में कलचुरि-चेदि सतत् की तिथि दी गयी है । इनमें कर्ण के लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं जो उसकी उपलब्धियों का विवरण देने के साथ-साथ इस वंश के इतिहास का भी बोध कराते है । कलचुरि नरेश युवराज के दरवार में राजशेखर ने कुछ काल तक निवास किया तथा वहीं उसने अपने दो ग्रन्थों- काव्यमीमांसा तथा विद्धशालभंजिका की रचना की थी ।
इनके अध्ययन से हम तत्कालीन संस्कृति का ज्ञान कर सकते है । इन ग्रन्थों में राजशेखर युवराज की मालवा तथा कलिंग की विजय का उल्लेख करते हुये उसे चक्रवर्ती राजा बताता है । हेमचन्द्र के द्वाश्रयकाव्य से कर्ण तथा पाल शासक विग्रहपाल के बीच संघर्ष की सूचना मिलती है । विल्हण कृत विक्रमांकदेवचरित से कर्ण तथा चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम के सम्बन्धों पर प्रकाश पड़ता है ।
पूर्व मध्यकालीन भारत में कलचुरि वंश की कई शाखाओं के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है । कलचुरियों की प्राचीनतम शाखा छठीं शती में माहिष्मती में शासन करती थी । इसका संस्थापक कृष्णराज था । उसका पौत्र बुद्धराज कन्नौज नरेश हर्ष एवं बादामी के चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का समकालीन था ।
उसके पूर्वजों कृष्णराज एवं शंकरगण का महाराष्ट्र, गुजरात, राजपूताना, कोंकण आदि पर अधिकार था । पुलकेशिन् के सैनिक अभियान ने उन्हें उत्तर भारत की ओर विस्थापित कर दिया । इसके बाद कुछ समय तक कलचुरियों का इतिहास अंधकारपूर्ण हो गया ।
चालूक्यों तथा प्रतिहारों के दबाव के कारण कलचुरि बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड की ओर बड़े तथा कालंजर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया । किन्तु शीघ्र ही प्रतिहारों ने उन्हें वही से भी हटा दिया । तत्पश्चात् कलचुरि गोरखपुर तथा देवरिया जिलों की भूमि पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में फैल गये । यहाँ उनकी सत्ता का संस्थापक राजा राजपुत्र था ।
कहला तथा कसिया लेखों से पता चलता है कि यहां दो कलचुरि वंश शासन कर रहे थे । गोरखपुर क्षेत्र में इस वंश के शासन का प्रारम्भ नवीं शती के प्रारम्भ में हुआ । राजपुत्र की दसवीं पीढ़ी में सोड़देव राजा हुआ । राजपुत्र के बाद शिवराज तथा शंकरगण प्रथम राजा बने ।
इनकी किसी भी उपलब्धि के विषय में पता नहीं चलता । शंकरगण को ही संभवतः त्रिपुरी के कलचुरि नरेश कोक्कल प्रथम ने अभयदान दिया था । उसका उत्तराधिकारी गुणाम्बोधि हुआ । बताया गया है कि उसने भोजदेव से कुछ भूमि प्राप्त की तथा युद्ध में गौड़ की लक्ष्मी का अपहरण कर लिया । ऐसा लगता है कि उसने प्रतिहार नरेश भोज की ओर से पाली के विरुद्ध संघर्ष में भाग लिया था ।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि गुणाम्बोधि तथा उसके उत्तराधिकारी गुर्जर प्रतिहारों के अधीन सामन्त थे । अगला राजा भामान ने प्रतिहारों के सामन्त रूप में धारा के परमार राजा से युद्ध कर ख्याति प्राप्त किया । इस वंश का दसवाँ राजा सोढ़देव हुआ जिसका लेख मिलता है । वह एक स्वतंत्र शासक था जैसा कि उसकी राजकीय उपाधियों से प्रकट होता है ।
इस समय तक गंगा-यमुना घाटी में तुक के आक्रमण तथा चन्देलों के विस्तार के कारण प्रतिहार साम्राज्य विनष्ट हो गया था जिससे सोढ़देव को स्वतंत्र राज्य स्थापित करने में सहायता मिली । उसने घाघरा तथा गण्डक के किनारे एक स्वाधीन राज्य कायम कर लिया । चरममाहेश्वर की उपाधि से उसका शैव होना सूचित होता है । सोढ़देव के उत्तराधिकारियों के विषय में हमें पता नहीं है ।
संभवत: वह इस वंश का अन्तिम स्वतंत्र राजा रहा हो । ग्यारहवीं शती में कन्नौज के गाहड़वालों के उत्कर्ष के साथ ही कलचुरी सत्ता का अन्त हो गया तथा बनारस तथा कन्नौज से लेकर अयोध्या तक का क्षेत्र गाहड़वालों के अधीन आ गया । इस प्रकार सरयूपार में गोरखपुर एवं देवरिया के कलचुरियों की शाखायें समाप्त हो गयी । अब त्रिपुरी अथवा डाहल का कलचुरि वंश शक्तिशाली हुआ ।
कलचुरि वंश का इतिहास (History of the Kalachuri Dynasty):
कलचुरि वंशों में यह सबसे प्रसिद्ध एवं शक्तिशाली सिद्ध हुआ । इसने मध्य भारत पर तीन शताब्दियों तक शासन किया । इस कलचुरि वंश का पहला राजा कोक्कल प्रथम था जो संभवत: 845 ईस्वी में गद्दी पर बैठा । उसका अपना कोई लेख तो नहीं मिलता किन्तु उसकी उपलब्धियों के विषय में हम उसके उत्तराधिकारियों के लेखों से जानते है ।
इनमें युवराजदेव का बिलहरी तथा कर्ण के बनारस लेख उल्लेखनीय है । ज्ञात होता है कि वह अपने समय का महान् सेनानायक था । उसने कन्नौज के प्रतिहार शासक भोज तथा उसके सामन्तों को युद्ध में पराजित किया । बिल्हारी लेख में कहा गया है कि अमस्त पृथ्वी को जीतकर उसने दक्षिण दिशा में कृष्णराज तथा उत्तर दिशा में भोज को अपने दो कीर्ति-स्तम्भों के रूप में स्थापित किया था ।
बनारस लेख में कहा गया है कि उसने भोज, बल्लभराज, चित्रकूट भूपाल, हर्ष तथा शंकरगण, नामक राजाओं को अभयदान दिया था । यहाँ भोज से तात्पर्य प्रतिहार भोज तथा कृष्णराज से तात्पर्य राष्ट्रकूट कृष्ण द्वितीय से है । हम निश्चित रूप से नहीं कह सकते कि इन दोनों राजाओं को उसने किसी युद्ध में जीता था अथवा वे उसका प्रभाव मात्र स्वीकार करते थे ।
हर्ष, चित्रकूटभूपाल एवं शंकरगण की पहचान निश्चित नहीं है । संभवतः हर्ष प्रतिहार भोज प्रथम का गुहिल सामन्त था जो चित्तौड़ में शासन करता था । शंकरगण, गोरखपुर की कलचुरि शाखा का सामन्त शासक था । तुम्माणवंशी पृथ्वीदेव के अमोदा लेख में वर्णित है कि कोक्कल ने कर्णाट, वंग, कोंकण, शाकम्भरी, तुरुष्क तथा रघुवंशी राजाओं को जीता था । लेकिन यह विवरण अतिश्योक्तिपूर्ण है जिसकी पुष्टि का कोई आधार नहीं है । इन जभी विजयी के फलस्वरूप वह अपने समय का एक शक्तिशाली शासक बन बैठा ।
उसने चन्देल वंश की राजकुमारी नट्टादैवी के साथ अपना विवाह तथा राष्ट्रकूट वंश के कृष्ण द्वितीय के साथ अपनी एक पुत्री का विवाह किया था । इन सम्बन्धों के परिणामस्वरूप उसने अपने साम्राज्य की पश्चिमी तथा दक्षिणी-पश्चिमी सीमाओं को सुरक्षित् कर लिया ।
i. शंकरगण:
कोक्कल के 18 पुत्र थे । इनमें उसका ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण उसकी मृत्यु के बाद (878 से 888 ईस्वी के बीच) चेदि वंश का राजा बना । उसने दक्षिणी कोशल के सोमवंशी शासक को हराकर पाली पर अधिकार कर लिया तथा अपने एक छोटे भाई को वहाँ का राज्यपाल नियुक्त किया ।
इस समय राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय देंगी के पूर्वी चालुक्य नरेश विजयादित्य तृतीय के साथ संघर्ष में उलझा हुआ था । शंकरगण एक सेना के साथ कृष्ण द्वितीय की सहायता के लिये गया परन्तु विजयादित्य ने दोनों की सम्मिलित सेनाओं को किरणपुर में परास्त कर दिया ।
तत्पश्चात् चालुक्यों ने किरणपुर (बालाघाट, म. प्र.) को जला दिया । इस पराजय से शंकरगण को गहरा धक्का लगा । बिल्हारी अभिलेख शंकरगण को मलय देश पर आक्रमण करने का श्रेय प्रदान करता है परन्तु यह उल्लेख संदिग्ध है । उसने अपनी पुत्री लक्ष्मी का विवाह राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय के पुत्र जगत्तुंग के साथ किया था ।
ii. युवराज प्रथम:
शंकरगण के दो पुत्र थे- बालहर्ष और युवराज प्रथम । बालहर्ष का शासन अल्पकालीन था और उसके विषय में हमें कुछ भी पता नहीं है । दसवीं शताब्दी के मध्य युवराज प्रथम शासक हुआ । वह एक विजेता था जिसने बंगाल के पाल तथा कलिंग के गंग शासकों को पराजित किया । परन्तु चन्देल नरेश यशोवर्मन् से वह पराजित हो गया । इसके अतिरिक्त राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने उसके राज्य पर आक्रमण किया ।
इसमें कलचुरियों की करारी हार हुई तथा उनके राज्य पर कुछ काल के लिये राष्ट्रकूटों का अधिकार हो गया । परंतु शीघ्र ही युवराज प्रथम ने इस पराजय का बदला लिया तथा एक सेना के साथ उसने राष्ट्रकूटों को परास्त कर अपने राज्य से बाहर भगा दिया । बिल्हारी अभिलेख से पता चलता है कि उसने कर्णाट तथा लाट को जीता था ।
धंग के खजुराहो लेख में भी उसकी शक्ति की प्रशंसा करते हुए उसे ‘प्रसिद्ध राजाओं के मस्तक पर पैर रखनेवाला’ कहा गया है । राजशेखर के ग्रंथ ‘विद्धशालभंजिका’ में युवराज को ‘उज्जयिनीभुजंग’ कहा गया है जो इस बात का सूचक है कि उसने मालवा को जीता था । युवराज के शासन-काल में ही राजशेखर कन्नौज छोड़कर त्रिपुरी आया ।
वहीं रहते हुये उसने अपने दो गुणों काव्यमीमांसा तथा विदशालभंजिका की रचना की थी । युवराज शैव मतानुयायी था । उसने शैव सन्तों को दान दिया तथा उनके निवास के लिये गुर्गी में एक मन्दिर तथा मठ बनवाया था । एक लेख में कहा गया है कि उसने डाहलमण्डल के शैव सन्त सद्भावशम्भु को तीन लाख गाँव भिक्षा में दिया था ।
उसकी पत्नी नोहला चालुक्य वंशीया कन्या थी जिसने बिल्हारी के निकट शिव का एक विशाल मन्दिर बनवाया तथा उसके लिये कई गाँव दान में दिये । भारद्वाज वंशी ब्राह्मण भाकमिश्र युवराज का प्रधानमंत्री था । भेड़ाघाट (जबलपुर) का प्रसिद्ध ‘चौसठ योगिनी मन्दिर’ का निर्माण भी युवराज के समय में ही हुआ था ।
iii. लक्ष्मणराज:
युवराज प्रथम के बाद उसका पुत्र लक्ष्मणराज शासक बना । वह भी एक शक्तिशाली राजा था जिसने कलचूरी साम्रज्य का चतुर्दिक विस्तार किया । बिल्हारी तथा गोहरवा के लेखों से उसकी विजयी के विषय में सूचना प्राप्त होती । बिल्हारी लेख के अनुसार युवराज ने ‘कोशलराज को जीतते हुए आगे बढ़कर उड़ीसा के राजा से रत्न और स्वर्ण से जटिल कलिय (नाम) की प्रतिभा प्राप्त की । इससे उसने सोमनाथ की पूजा की ।’
इसी प्रकार बिल्हारी लेख में कहा गया है कि उसने बंगाल के राजा का पराजित किया, पाण्ड्यराज को पराभूत किया, लाट के राजा को लूटा, गुर्जरनरेश को जीता तथा कश्मीर के राजा ने मस्तक झुकाकर उसके चरणों की पूजा किया । इन लेखों का विवरण यद्यपि प्रशस्ति प्रकार का है जिसमें अतिरंजना का पुट मिलता है तथापि इसमें ऐतिहासिक तथ्य निहित है ।
उसका सोमनाथ तक अभियान तथ्य पर आधारित प्रतीत होता है । दसवीं शती के द्वितीयार्ध में गुर्जर तथा लाट भारी अव्यवस्था के शिकार थे । लाट प्रदेश पर राष्ट्रकूटों के सामन्त शिलाहार वंश तथा उत्तरी गुजरात पर कन्नौज के प्रतिहारों का अधिकार था ।
इन दोनों शक्तियों के पतन के दिनों में इन प्रदेशों में अव्यवस्था फैल गयी, जिसका लाभ उठाते हुए लक्ष्मणराज ने इन प्रदेशों से होते हुए सोमनाथ तक सफल अभियान किया होगा । कोशल से तात्पर्य दक्षिण कोशल से है । यहाँ संभवतः उड़ीसा के सोमवशी राजा राज्य करते थे ।
जहाँ तक बंगाल का प्रश्न है, हमें ज्ञात है कि दसवीं शती के द्वितयार्ध से वहाँ शासन करने वाले पालवंश की स्थिति निर्बल पड़ गयी थी । ग्यारहवीं शती के प्रथमार्ध में कलचुरि बंगाल के शासकों के धनिष्ठ सम्पर्क में थे ।
संभव है इसी का लाभ उठाते हुए लक्ष्मणराज ने वहाँ सैनिक अभियान कर सफलता प्राप्त की हो । यहाँ तक हम कुछ ठोस आधार पर है, लेकिन जहाँ तक कश्मीर तथा पाण्ड्य राज्य की विजय का प्रश्न है, यह शुद्ध रूप से काव्यात्मक प्रतीत होता है ।
लक्ष्मणराज ने अपनी पुत्री का विवाह चालुक्य नरेश विक्रमदित्य चतुर्थ के साथ किया । अपने पिता के समान लक्ष्मणराज भी शैव मत का पोषक था तथा शैव सजे को संरक्षण प्रदान किया तथा हृदयशिव के लिये बहुमूल्य उपहारों सहित वैद्यनाथ मठ का दान किया । उसका प्रधान सचिव शोमेश्वर था जिसने विष्णु का एक मन्दिर बनवाया था ।
लक्ष्मणराज के बाद उसका पुत्र शंकरगण तृतीय राजा बना । उसकी कोई उपलब्धि नहीं है । उसके बाद उसका छोटा भाई युवराज द्वितीय राजा बना । गोहरवा लेख में उसे ‘चेदीन्द्रचंद्र’ अर्थात् ‘चेदिवंश’ के राजाओं में चन्द्र कहा गया है ।
उसने परमेश्वर की उपाधि धारण की । किन्तु सैनिक दृष्टि से वह निर्बल शासक था जिसे वेंगी के चालुक्य नरेश तैल द्वितीय तथा परमार नरेश मुंज ने पराजित कर दिया । त्रिपुरी पर मुंज ने कुछ समय तक अधिकार बनाये रखा ।
उसके हटने क बाद मंत्रियों ने युवराज द्वितीय को हटाकर पुत्र कोक्कल द्वितीय को राजा बना दिया । उसके समय में कलचुरियों ने अपनी शक्ति एवं मर्यादा को पुन प्राप्त कर लिया । कोक्कल द्वितीय ने गुर्जरदेश (गुजरात) पर आक्रमण कर चौलुक्य नरेश चामुण्डराज को पराजित किया । उसने कुन्तल तथा गौड़ शासकों के विरुद्ध भी सफलता प्राप्त की । उसने 1019 ईस्वी तक राज्य किया ।
कलचुरि सत्ता का उत्कर्ष (Rise of the Kalachuri Dynasty):
I. गांगेयदेव विक्रमादित्य:
कोक्कल द्वितीय के पश्चात् उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी गांगेयदेव विक्रमादित्य कलचुरिवंश का एक प्रतापी राजा हुआ । उसके राज्यारोहण के समय कलचुरि राज्य की स्थिति अत्यन्त निर्बल थी । परमार भोज तथा चन्देल विद्याधर उसके प्रबल प्रतिद्वन्द्वी थे । अतः उनके विरुद्ध अपने वंश की सत्ता सुदृढ़ बनाना गांगेयदेव का प्रमुख कर्त्तव्य था ।
ऐसा लगता है कि अपने शासन के प्रारम्भ में वह चन्देल नरेश विद्याधर की अधीनता स्वीकार करता था । खजुराहो से प्राप्त एक चन्देल लेख से इसकी सूचना मिलती है जिसके अनुसार कलचुरि नरेश विद्याधर की गुरु के समान पूजा करता था । यहाँ कलचुरि नरेश से तात्पर्य गांगेयदेव से ही है ।
मिराशी का विचार है कि गांगेयदेव ने राज्यपाल के विरुद्ध अभियान में विद्याधर की ओर से भाग लिया था । चूंकि परमार भोज भी विद्याधर से आतंकित था, अत: वह गांगेयदेव का स्वभाविक मित्र बन गया । भोज ने कल्याणी के चालुक्य नरेश जयसिंह द्वितीय के विरुद्ध जो सैनिक अभियान किया था, गांगेयदेव भी उसमें शामिल हुआ था । किन्तु जयसिंह ने उसे पराजित कर दिया ।
इसके साथ ही भोज के साथ उसकी मित्रता भी समाप्त हो गयी । मध्य भारत पर प्रभुत्व के लिये दोनों के बीच एक युद्ध भी हुआ जिसमें गांगेयदेव पराजित हो गया । किन्तु इससे गांगेयदेव हताश नहीं हुआ । विद्याधर की मृत्यु के बाद उसने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दिया तथा इस अवधि में उत्तरी भारत का सार्वभौम शासक बनने के लिये उसने अनेक विजयें कीं ।
उसने अंग, उत्कल, काशी तथा प्रयाग को जीता तथा प्रयाग में उसने अपना एक निवास-स्थान बनाया । काशी का क्षेत्र संभवत: उसने पाल शासकों से छीना था । प्रयाग पर उसके अधिकार की पुष्टि खैरा और जबलपुर के लेखों से होती है जहाँ बताया गया है कि गांगेयदेव ने वटवृक्ष के नीचे निवास करते हुये अपनी एक सौ रानियों के साथ प्राणोत्सर्ग कर मुक्ति प्राप्त किया था ।
इससे तथा उत्तर भारत में प्राप्त उसके बहुसंख्यक सिक्कों से वहाँ उसका अधिकार प्रमाणित होता । सम्पूर्ण कलचुरि वंश में सिक्के प्रवर्त्तित करने वाला गांगेयदेव पहला और शायद अन्तिम राजा था । ये सिक्के लक्ष्मी शैली के है । राजपूत राजाओं में सर्वप्रथम उसी ने स्वर्ग सिक्के प्रचलित करवाये थे ।
बनारस पर गांगेयदेव के अधिकार का परोक्ष रूप से समर्थन बैहकी के विवरण से भी होता है जिसमें बताया गया है कि 1033 ई. में अहमद नियाल्तगीन ने जब बनारस पर आक्रमण किया तो वहाँ का शासक गंग (गांगेयदेव) था । गांगेयदेव ने उत्तर-पश्चिम में पंजाब तथा दक्षिण में कुन्तल तक सैनिक अभियान किया ।
एक नेपाली पाण्डुलिपि में उसे तीरभुक्ति (तिरहुत) का स्वामी बताया गया है । पूर्व की ओर उसने उड़ीसा तक अभियान कर विजय प्राप्त की थी । गोइखा लेख से सूचना मिलती है कि उसने उत्कल के राजा को जीतकर अपनी भुजाओं को एक विजयस्तम्भ बना दिया था ।
इस प्रकार गांगेयदेव एक विस्तृत साम्राज्य का शासक बना तथा महाराजाधिराज, परमेश्वर, महामण्डलेश्वर जैसी उच्च सम्मानपरक उपाधियों को ग्रहण किया । खैरालेख से पता चलता है कि उसने ‘विक्रमादित्य’ की भी उपाधि ग्रहण की थी । अपने पूर्वजों की भाँति गांगेयदेव भी शैवमतानुयायी था तथा उसने भी शैवमन्दिरों एवं मठों का निर्माण करवाया था ।
II. कर्ण अथवा लक्ष्मीकर्ण:
गांगेयदेव के बाद उसका पुत्र कर्णदेव अथवा लक्ष्मीकर्ण शासक बना । वह अपने वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा था । उसके कुल आठ अभिलेख मिलते हैं जिनसे हम उसकी उपलब्धियों का गन प्राप्त करते हैं । उसने अनेक सैनिक अभियान किये ।
गुजरात के नरेश भीम के साथ मिलकर उसने मालवा के परमारवंशी शासक भोज को पराजित किया । रासमाला से पता चलता है कि कर्ण ने धारा को ध्वस्त करने के बाद राजकोष पर अधिकार कर लिया । इस युद्ध में भोज मारा गया । प्रबन्धचिन्तामणि से भी इसका समर्थन होता है ।
भेड़ाघाट अभिलेख में कहा गया है कि कर्ण की वीरता के सामने वंग तथा कलिंग के शासक कांपने लगे । बंगाल में इस समय जातवर्मन् नामक कोई राजा शासन कर रहा था । कर्ण ने अपनी कन्या वीरश्री का विवाह उसके साथ कर दिया ।
कर्ण ने कलिंग की विजय की तथा ‘त्रिकलिंगाधिपकि’ की उपाधि धारण की । पूर्व की ओर गौड़ तथा मगध के पाल शासकों को उसने पराजित किया । तिब्बती परम्परा से पता चलता है कि मगध में उसने बहुसंख्यक बौद्ध पन्दिरों तथा मठों को नष्ट कर दिया था । पाल नरेश विग्रहपाल तृतीय को उसने युद्ध में पराजित किया ।
कर्ण के पैकोर (वीरभूमि जिला) लेख से पता चलता है कि उसने वहाँ की देवी को स्तम्भ समर्पित किया था । हेमचन्द्र भी कर्ण द्वारा विग्रहपाल की पराजय का उल्लेख करता है । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कर्ण ने उसके साथ सन्धि कर ली तथा अपनी कन्या का विवाह कर उसे अपना मित्र बना लिया ।
कर्ण का सबसे प्रसिद्ध संघर्ष बुन्देलखण्ड के चन्देल वंश के साथ हुआ । विद्याधर की मृत्यु के बाद वहाँ का शासन निर्बल राजाओं के हाथ में आ गया जो अपनी रक्षा करने में सक्षम नहीं थे । इसका लाभ उठाते हुए कर्ण ने चन्देल नरेश देववर्मन पर आक्रमण कर उसे परास्त कर उसके राज्य के कुछ भागों पर अधिकार कर लिया ।
चन्देल लेखों से भी पता चलता है कि कुछ समय के लिये उनका राज्य कर्ण के आक्रमणों से पूर्णतया विनष्ट कर दिया गया था । बिल्हण कर्ण को कालंजर गिरि के अधिपतियों का काल कहता है । इस प्रकार विविध स्रोतों से स्पष्ट होता है कि कर्ण तत्कालीन मध्य भारत का सर्वशक्तिमान सम्राट वन गया । परमार तथा चन्देल राजाओं का उन्मूलन करके उसने अपनी स्थिति सार्वभौम बना ली ।
उसके लेखों की प्राप्ति स्थानों-पैकोर, बनारस, गोहरवा आदि से भी पता चलता है कि वह एक विस्तृत भूभाग का स्वामी था । कभी-कभी कुछ यूरोपीय इतिहासकार कर्ण की उपलब्धियों की फ्रांसीसी सेनानायक नेपोलियन से करते हैं ।
किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि कर्ण अपनी अजेयता अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रख सका तथा अपने शासन के अन्तिम दिनों में उसे पराभव उठानी पड़ी । चन्देल नरेश कीर्तिवर्मन् द्वारा वह पराजित कर दिया गया । इससे कर्ण की शक्ति अत्यन्त निर्बल पड़ गयी ।
पूर्व में विग्रहपाल तृतीय के पुत्र नयपाल, पश्चिम में परमार नरेश उदयादित्य, उससे पश्चिम में अन्हिलवाड़ के चालुक्य भीम प्रथम तथा दक्षिण में कल्याणी के चालुक्य नरेश सोमेश्वर प्रथम ने भी कर्ण को कई युद्धों में पराजित कर उसकी प्रतिष्ठा को में मिला दिया । 1073 ई. के लगभग उसका शासन समाप्त हो गया ।
कर्ण भी अपने पिता के समान शैवमतानुयायी था तथा बनारस में उसने कर्णमेरु नामक शैवमन्दिर बनवाया था । उसने त्रिपुरी के निकट कर्णावती आधुनिक कर्णबेल नामक नगर की स्थापना भी करवायी थी । उसका विवाह हूणवंशीया कन्या आवल्लदेवी के साथ हुआ था। सारनाथ के बौद्ध भिक्षुओ को भी उसने सुविधायें प्रदान की थीं । प्रयाग तथा काशी में वह दान वितरित करता था ।
कलचुरि सत्ता का विनाश (Decline of the Kalachuri Dynasty):
कर्ण की मृत्यु के बाद कलचुरियों की शक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी । उसके बाद उसकी पत्नी आवल्लदेवी से उत्पन्न पुत्र यश:कर्ण राजा बना । उसके जबलपुर तथा खैरा लेखों से पता चलता है कि स्वयं लक्ष्मीकर्ण ने ही उसका राज्याभिषेक किया था । वह अपने पिता के समान शक्तिशाली नहीं था ।
उसकी एकमात्र सफलता, जिसका उल्लेख उसके लेखों में किया गया है, यह थी कि वह आन्ध्र के राजा को जीतकर गोदावरी नदी तट तक पहुंच गया तथा वहाँ भीमेश्वर मन्दिर में पूजा की । यह पराजित राजा देंगी का पूर्वी चालुक्य वंशी विजयादित्य सप्तम था ।
किन्तु वह अधिक समय तक अपना राज्य सुरक्षित नहीं रख सका । उसे गम्भीर चुनौती काशी-कन्नौज क्षेत्र के गाहड़वालों द्वारा मिली जिनका उत्कर्ष चन्द्रदेव के नेतृत्व में तेजी से हुआ । उसने काशी, कन्नौज तथा दिल्ली के समीपवर्ती सभी क्षेत्रों को जीतकर अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर दिया ।
इन स्थानों को उसने यश कर्ण से ही जीता होगा । इसके अतिरिक्त परमार लक्ष्मदेव, कल्याणी के चालुक्य नरेश विक्रमादित्य षष्ठ, चन्देल नरेश सल्लक्षणवर्मा आदि ने भी कई युद्धों में यश कर्ण को पराजित कर दिया । यश:कर्ण के बाद उसका पुत्र गयाकर्ण (1123-1151 ई॰) राजा बना ।
वह भी एक निर्बल राजा था जो अपने वंश की प्रतिष्ठा एवं साम्राज्य को सुरक्षित नहीं रख सका । चन्देल नरेश मदनवर्मा ने उसे बुरी तरह पराजित किया । गयाकर्ण इतना भयाक्रान्त था कि उसका नाम सुनकर हो भाग खड़ा होता था । दक्षिणी कोशल के कलचुरि सामन्तों ने भी अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी तथा उनके शासक रत्नदेव द्वितीय ने भी गयाकर्ण को पराजित किया ।
गयाकर्ण के बाद नरसिंह, जयसिंह तथा विजयसिंह के नाम मिलते है जिन्होंने बारी-बारी से शासन किया । वे भी अपने साम्राज्य को विघटन से बचा नहीं सके । बारहवीं शती के अन्त तक इस वंश ने महाकोशल में किसी न किसी प्रकार अपनी सत्ता कायम रखी ।
अन्ततोगत्वा तेरहवीं शती के प्रारम्भ में इस वंश के अन्तिम शासक विजयसिंह को चन्देल शासक त्रैलोक्यवर्मन् ने परास्त कर त्रिपुरी को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया । इस प्रकार कलचुरि-चेदिवंश का अन्त हुआ ।