Chanakya Niti Slokas In Sanskrit With Hindi Meaning | चाणक्य नीति संस्कृत श्लोक अर्थ सहित

Mr. Parihar
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कश्चित् कस्यचिन्मित्रं, न कश्चित् कस्यचित् रिपु:। अर्थतस्तु निबध्यन्ते, मित्राणि रिपवस्तथा ॥

भावार्थ :

न कोई किसी का मित्र है और न ही शत्रु, कार्यवश ही लोग मित्र और शत्रु बनते हैं ।

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मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टास्त्रीभरणेन च। दुःखितैः सम्प्रयोगेण पण्डितोऽप्यवसीदति॥

भावार्थ :

मूर्ख शिष्य को पढ़ाने पर , दुष्ट स्त्री के साथ जीवन बिताने पर तथा दुःखियों- रोगियों के बीच में रहने पर विद्वान व्यक्ति भी दुःखी हो ही जाता है ।

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दुष्टा भार्या शठं मित्रं भृत्यश्चोत्तरदायकः। ससर्पे गृहे वासो मृत्युरेव न संशयः॥

भावार्थ :

दुष्ट पत्नी , शठ मित्र , उत्तर देने वाला सेवक तथा सांप वाले घर में रहना , ये मृत्यु के कारण हैं इसमें सन्देह नहीं करनी चाहिए ।

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धनिकः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यस्तु पञ्चमः। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न तत्र दिवसे वसेत ॥

भावार्थ :

जहां कोई सेठ, वेदपाठी विद्वान, राजा और वैद्य न हो, जहां कोई नदी न हो, इन पांच स्थानों पर एक दिन भी नहीं रहना चाहिए ।

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जानीयात्प्रेषणेभृत्यान् बान्धवान्व्यसनाऽऽगमे। मित्रं याऽऽपत्तिकालेषु भार्यां च विभवक्षये ॥

भावार्थ :

किसी महत्वपूर्ण कार्य पर भेज़ते समय सेवक की पहचान होती है । दुःख के समय में बन्धु-बान्धवों की, विपत्ति के समय मित्र की तथा धन नष्ट हो जाने पर पत्नी की परीक्षा होती है ।

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यस्मिन् देशे न सम्मानो न वृत्तिर्न च बान्धवाः। न च विद्यागमोऽप्यस्ति वासस्तत्र न कारयेत् ॥

भावार्थ :

जिस देश में सम्मान न हो, जहाँ कोई आजीविका न मिले , जहाँ अपना कोई भाई-बन्धु न रहता हो और जहाँ विद्या-अध्ययन सम्भव न हो, ऐसे स्थान पर नहीं रहना चाहिए ।

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माता यस्य गृहे नास्ति भार्या चाप्रियवादिनी। अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥

भावार्थ :

जिसके घर में न माता हो और न स्त्री प्रियवादिनी हो , उसे वन में चले जाना चाहिए क्योंकि उसके लिए घर और वन दोनों समान ही हैं ।

Niti Shlokas

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आपदर्थे धनं रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि। आत्मानं सततं रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥

भावार्थ :

विपत्ति के समय के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से अधिक रक्षा पत्नी की करनी चाहिए । किन्तु अपनी रक्षा का प्रसन सम्मुख आने पर धन और पत्नी का बलिदान भी करना पड़े तो नहीं चूकना चाहिए ।

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लोकयात्रा भयं लज्जा दाक्षिण्यं त्यागशीलता। पञ्च यत्र न विद्यन्ते न कुर्यात्तत्र संगतिम् ॥

भावार्थ :

जिस स्थान पर आजीविका न मिले, लोगों में भय, और लज्जा, उदारता तथा दान देने की प्रवृत्ति न हो, ऐसी पांच जगहों को भी मनुष्य को अपने निवास के लिए नहीं चुनना चाहिए ।

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आतुरे व्यसने प्राप्ते दुर्भिक्षे शत्रुसण्कटे। राजद्वारे श्मशाने च यात्तिष्ठति स बान्धवः ॥

भावार्थ :

जब कोई बीमार होने पर, असमय शत्रु से घिर जाने पर, राजकार्य में सहायक रूप में तथा मृत्यु पर श्मशान भूमि में ले जाने वाला व्यक्ति सच्चा मित्र और बन्धु है ।

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भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर वरांगना । विभवो दानशक्तिश्च नाऽल्पस्य तपसः फलम् ॥

भावार्थ :

भोज्य पदाथ, भोजन-शक्ति, रतिशक्ति, सुन्दर स्त्री, वैभव तथा दान-शक्ति, ये सब सुख किसी अल्प तपस्या का फल नहीं होते ।

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यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी। विभवे यस्य सन्तुष्टिस्तस्य स्वर्ग इहैव हि ॥

भावार्थ :

जिसका पुत्र वशीभूत हो, पत्नी वेदों के मार्ग पर चलने वाली हो और जो वैभव से सन्तुष्ट हो, उसके लिए यहीं स्वर्ग है ।

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ते पुत्रा ये पितुर्भक्ताः सः पिता यस्तु पोषकः। तन्मित्रं यत्र विश्वासः सा भार्या या निवृतिः ॥

भावार्थ :

पुत्र वही है, जो पिता का भक्त है । पिता वही है,जो पोषक है, मित्र वही है, जो विश्वासपात्र हो । पत्नी वही है, जो हृदय को आनन्दित करे ।

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कष्टं च खलु मूर्खत्वं कष्ट च खलु यौवनम्। कष्टात्कष्टतरं चैव परगृहेनिवासनम् ॥

भावार्थ :

मूर्खता कष्ट है, यौवन भी कष्ट है, किन्तु दूसरों के घर में रहना कष्टों का भी कष्ट है ।

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माता शत्रुः पिता वैरी येनवालो न पाठितः। न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये वको यथा ॥

भावार्थ :

बच्चे को न पढ़ानेवाली माता शत्रु तथा पिता वैरी के समान होते हैं । बिना पढ़ा व्यक्ति पढ़े लोगों के बीच में कौए के समान शोभा नहीं पता ।

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परोक्षे कार्यहन्तारं प्रत्यक्षे प्रियवादिनम्। वर्जयेत्तादृशं मित्रं विषकुम्भं पयोमुखम् ॥

भावार्थ :

पीठ पीछे काम बिगाड़नेवाले था सामने प्रिय बोलने वाले ऐसे मित्र को मुंह पर दूध रखे हुए विष के घड़े के समान त्याग देना चाहिए ।

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न विश्वसेत्कुमित्रे च मित्रे चापि न विश्वसेत्। कदाचित्कुपितं मित्रं सर्वं गुह्यं प्रकाशयेत् ॥

भावार्थ :

कुमित्र पर विश्वास नहीं करना चाहिए और मित्र पर भी विश्वास नहीं करना चाहिए । कभी कुपित होने पर मित्र भी आपकी गुप्त बातें सबको बता सकता हैं ।

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मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्। मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्य चापि नियोजयेत् ॥

भावार्थ :

मन में सोचे हुए कार्य को मुंह से बाहर नहीं निकालना चाहिए । मन्त्र के समान गुप्त रखकर उसकी रक्षा करनी चाहिए । गुप्त रखकर ही उस काम को करना भी चाहिए ।

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शैले शैले न माणिक्यं मौक्तिकं न गजे गजे। साधवो न हि सर्वत्र चन्दनं न वने वने ॥

भावार्थ :

न प्रत्येक पर्वत पर मणि-माणिक्य ही प्राप्त होते हैं न प्रत्येक हाथी के मस्तक से मुक्ता-मणि प्राप्त होती है । संसार में मनुष्यों की कमी न होने पर भी साधु पुरुष नहीं मिलते । इसी प्रकार सभी वनों में चन्दन के वृक्ष उपलब्ध नही होते ।

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लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः। तस्मात्पुत्रं च शिष्यं च ताडयेन्न तु लालयेत् ॥

भावार्थ :

अधिक लाड़ से अनेक दोष तथा अधिक ताड़न से गुण आते हैं । इसलिए पुत्र और शिष्य को लालन की नहीं ताड़न की आवश्यकता होती है ।

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बलं विद्या च विप्राणां राज्ञः सैन्यं बलं तथा। बलं वित्तं च वैश्यानां शूद्राणां च कनिष्ठता ॥

भावार्थ :

विद्या ही ब्राह्मणों का बल है । राजा का बल सेना है । वैश्यों का बल धन है तथा सेवा करना शूद्रों का बल है ।

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दुराचारी च दुर्दृष्टिर्दुराऽऽवासी च दुर्जनः। यन्मैत्री क्रियते पुम्भिर्नरः शीघ्र विनश्यति ॥

भावार्थ :

दुराचारी, दुष्ट स्वभाववाला, बिना किसी कारण दूसरों को हानि पहुँचानेवाला तथा दुष्ट व्यक्ति से मित्रता रखने वाला श्रेष्ठ पुरुष भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते है क्यूोंकि संगति का प्रभाव बिना पड़े नहीं रहता है ।

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समाने शोभते प्रीती राज्ञि सेवा च शोभते। वाणिज्यं व्यवहारेषु स्त्री दिव्या शोभते गृहे ॥

भावार्थ :

समान स्तरवालों से ही मित्रता शोभा देती है । सेवा राजा की शोभा देती है । वैश्यों को व्यपार करना ही सोभा देता है । शुभ स्त्री घर की शोभा है

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यो ध्रुवाणि परित्यज्य ह्यध्रुवं परिसेवते। ध्रुवाणि तस्य नश्यन्ति चाध्रुवं नष्टमेव तत् ॥

भावार्थ :

जो निश्चित को छोड़कर अनिश्चित का सहारा लेता है, उसका निश्चित भी नष्ट हो जाता है ।अनिश्चित तो स्वयं नष्ट होता ही है ।

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वरयेत्कुलजां प्राज्ञो निरूपामपि कन्यकाम्। रूपवतीं न नीचस्य विवाहः सदृशे कुले ॥

भावार्थ :

बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह रूपवती न होने पर भी कुलीन कन्या से विवाह कर ले, किन्तु नीच कुल की कन्या यदि रूपवती तथा सुशील भी हो, तो उससे विवाह न करे । क्योँकि विवाह समान कुल में ही करनी चाहिए ।

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कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः। व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ॥

भावार्थ :

किसके कुल में दोष नहीं होता ? रोग किसे दुःखी नहीं करते ? दुःख किसी नहीं मिलता और निरंतर सुखी कौन रहता है अर्थात कुछ न कुछ कमी तो सब जगह है और यह एक कड़वी सच्चाई है ।

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आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्। सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥

भावार्थ :

आचरण से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है । बोली से देश का पता लगता है । आदर-सत्कार से प्रेम का तथा शरीर को देखकर व्यक्ति के भोजन का पता चलता है ।

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सकुले योजयेत्कन्या पुत्रं पुत्रं विद्यासु योजयेत्। व्यसने योजयेच्छत्रुं मित्रं धर्मे नियोजयेत् ॥

भावार्थ :

कन्या का विवाह किसी अच्छे घर में करनी चाहिए, पुत्र को पढ़ाई-लिखाई में लगा देना चाहिए, मित्र को अच्छे कार्यो में तथा शत्रु को बुराइयों में लगा देना चाहिए । यही व्यवहारिकता है और समय की मांग भी

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दुर्जनेषु च सर्पेषु वरं सर्पो न दुर्जनः। सर्पो दंशति कालेन दुर्जनस्तु पदे-पदे ॥

भावार्थ :

दुष्ट और साँप, इन दोनों में साँप अच्छा है, न कि दुष्ट । साँप तो एक ही बार डसता है, किन्तु दुष्ट तो पग-पग पर डसता रहता है ।

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एतदर्थ कुलीनानां नृपाः कुर्वन्ति संग्रहम्। आदिमध्यावसानेषु न त्यजन्ति च ते नृपम् ॥

भावार्थ :

कुलीन लोग आरम्भ से अन्त तक साथ नहीं छोड़ते । वे वास्तव में संगति का धर्म निभाते हैं । इसलिए राजा लोग कुलीन का संग्रह करते हैं ताकि समय-समय पर सत्परामर्श मिल सके ।

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प्रलये भिन्नमर्यादा भवन्ति किल सागराः। सागरा भेदमिच्छन्ति प्रलयेऽपि न साधवः॥

भावार्थ :

जिस सागर को हम इतना गम्भीर समझते हैं, प्रलय आने पर वह भी अपनी मर्यादा भूल जाता है और किनारों को तोड़कर जल-थल एक कर देता है ; परन्तु साधु अथवा श्रेठ व्यक्ति संकटों का पहाड़ टूटने पर भी श्रेठ मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता । अतः साधु पुरुष सागर से भी महान होता है ।

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मूर्खस्तु परिहर्तव्यः प्रत्यक्षो द्विपदः पशुः। भिनत्ति वाक्यशूलेन अदृश्ययं कण्टकं यथा ॥

भावार्थ :

मूर्ख व्यक्ति को दो पैरोंवाला पशु समझकर त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह अपने शब्दों से शूल के समान उसी तरह भेदता रहता है, जैसे अदृश्य कांटा चुभ जाता है|

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रूपयौवनसम्पन्ना विशालकुलसम्भवाः। विद्याहीना न शोभन्ते निर्गन्धा इव किंशुकाः ॥

भावार्थ :

रूप और यौवन से सम्पन्न, उच्च कुल में उत्पन्न होकर भी विद्याहीन मनुष्य सुगन्धहीन फूल के समान होते हैं और शोभा नहीं देते |

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कोकिलानां स्वरो रूपं नारी रूपं पतिव्रतम्। विद्या रूपं कुरूपाणां क्षमा रूपं तपस्विनाम्॥

भावार्थ :

कोयलों का रूप उनका स्वर है । पतिव्रता होना ही स्त्रियों की सुन्दरता है। कुरूप लोगों का ज्ञान ही उनका रूप है तथा तपस्वियों का क्षमा- भाव ही उनका रूप है ।

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त्यजेदेकं कुलस्यार्थे ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्। ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥

भावार्थ :

व्यक्ति को चाहिए की कुल के लिए एक व्यक्ति को त्याग दे । ग्राम के लिए कुल को त्याग देना चाहिए । राज्य की रक्षा के लिए ग्राम को तथा आत्मरक्षा के लिए संसार को भी त्याग देना चाहिए ।

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उद्योगे नास्ति दारिद्रयं जपतो नास्ति पातकम्। मौनेन कलहो नास्ति जागृतस्य च न भयम्॥

भावार्थ :

उद्यम से दरिद्रता तथा जप से पाप दूर होता है । मौन रहने से कलह और जागते रहने से भय नहीं होता ।

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अति रूपेण वै सीता चातिगर्वेण रावणः। अतिदानाद् बलिर्बद्धो ह्यति सर्वत्र वर्जयेत्॥

भावार्थ :

अधिक सुन्दरता के कारण ही सीता का हरण हुआ था, अति घमंडी हो जाने पर रावण मारा गया तथा अत्यन्त दानी होने से राजा बलि को छला गया । इसलिए अति सभी जगह वर्जित है ।

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को हि भारः समर्थानां किं दूर व्यवसायिनाम्। को विदेश सुविद्यानां को परः प्रियवादिनम्॥

भावार्थ :

सामर्थ्यवान व्यक्ति को कोई वस्तु भारी नहीं होती । व्यपारियों के लिए कोई जगह दूर नहीं होती । विद्वान के लिए कहीं विदेश नहीं होता । मधुर बोलने वाले का कोई पराया नहीं होता ।

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एकेनापि सुवर्ण पुष्पितेन सुगन्धिता। वसितं तद्वनं सर्वं सुपुत्रेण कुलं यथा॥

भावार्थ :

जिस प्रकार वन में सुन्दर खिले हुए फूलोंवाला एक ही वृक्ष अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर देते है उसी प्रकार एक ही सुपुत्र सारे कुल का नाम ऊंचा कर देता है |

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एकेन शुष्कवृक्षेण दह्यमानेन वह्निना। दह्यते तद्वनं सर्वं कुपुत्रेण कुलं यथा॥

भावार्थ :

जिस प्रकार एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने पर सारा वन जल जाता है इसी प्रकार एक ही कुपुत्र सारे कुल को बदनाम कर देता है |

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एकेनापि सुपुत्रेण विद्यायुक्ते च साधुना। आह्लादितं कुलं सर्वं यथा चन्द्रेण शर्वरी॥

भावार्थ :

जिस प्रकार अकेला चन्द्रमा रात की शोभा बढ़ा देता है, ठीक उसी प्रकार एक ही विद्वान -सज्जन पुत्र कुल को आह्लादित करता है ।

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किं जातैर्बहुभिः पुत्रैः शोकसन्तापकारकैः। वरमेकः कुलावल्भबो यत्र विश्राम्यते कुलम्॥

भावार्थ :

शौक और सन्ताप उत्पन करने वाले अनेक पुत्रों के पैदा होने से क्या लाभ कुल को सहारा देनेवाले एक ही पुत्र श्रेठ है, जिसके सहारे सारा कुल विश्राम करता है ।

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लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्। प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रं मित्रवदाचरेत्॥

भावार्थ :

पुत्र का पांच वर्ष तक लालन करे । दस वर्ष तक ताड़न करे । सोलहवां वर्ष लग जाने पर उसके साथ मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए ।

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उपसर्गेऽन्यच्रके च दुर्भिक्षे च भयावहे। असाधुजनसम्पर्के पलायति स जीवति॥

भावार्थ :

उपद्रव या लड़ाई हो जाने पर, भयंकर आकाल पड़ जाने पर और दुष्टों का साथ मिलने पर भागजाने वाला व्यक्ति ही जीता है ।

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धर्मार्थकाममोश्रेषु यस्यैकोऽपि न विद्यते। जन्म जन्मानि मर्त्येषु मरणं तस्य केवलम्॥

भावार्थ :

जिस मनुष्य को धर्म, काम-भोग, मोक्ष में से एक भी वस्तु नहीं मिल पाती, उसका जन्म केवल मरने के लिए ही होता है

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मूर्खाः यत्र न पूज्यन्ते धान्यं यत्र सुसंचितम् । दाम्पत्योः कलहो नास्ति तत्र श्री स्वयमागता॥

भावार्थ :

जहां मूर्खों का सम्मान नहीं होता, अन्न का भण्डार भरा रहता है और पति-पत्नी में कलह नहीं हो, वहां लक्ष्मी स्वयं आती है ।

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आयुः कर्म वित्तञ्च विद्या निधनमेव च। पञ्चैतानि हि सृज्यन्ते गर्भस्थस्यैव देहिनः॥

भावार्थ :

आयु, कर्म, वित्त, विद्या, निधन ये पांचों चीजें प्राणी के भाग्य में तभी लिख दी जाती हैं, जब वह गर्भ में ही होते है ।

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साधुम्यस्ते निवर्तन्ते पुत्रः मित्राणि बान्धवाः। ये च तैः सह गन्तारस्तद्धर्मात्सुकृतं कुलम्॥

भावार्थ :

संसार के अधिकतर पुत्र,मित्र और भाई साधु-महात्माओं, विद्वानों आदि की संगति से दूर रहते हैं । जो लोग सत्संगति करते हैं, वे अपने कुल को पवित्र कर देते हैं ।

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दर्शनध्यानसंस्पर्शैर्मत्स्यी कूर्मी च पक्षिणि। शिशु पालयते नित्यं तथा सज्जनसंगतिः॥

भावार्थ :

जैसे मछली, मादा, कछुवा और चिड़ियां अपने बच्चों का पालन क्रमशः देखकर, ध्यान देकर तथा स्पर्श से करती हैं, उसी प्रकार सत्यसंगति भी हर स्थिति में मनुष्यों का पालन करती है ।

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यावत्स्वस्थो ह्यय देहः तावन्मृत्युश्च दूरतः। तावदात्महितं कुर्यात् प्रणान्ते किं करिष्यति॥

भावार्थ :

जब तक शरीर स्वस्थ है, तभी तक मृत्यु भी दूर रहती है । अतः तभी आत्मा का कल्याण कर लेना चाहिए । प्राणों का अन्त हो जाने पर क्या करेगा? केवल पश्चात्ताप ही शेष रहेगा ।

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कामधेनुगुणा विद्या ह्ययकाले फलदायिनी। प्रवासे मातृसदृशा विद्या गुप्तं धनं स्मृतम्॥

भावार्थ :

विद्या कामधेनु के समान गुणोंवाली है, बुरे समय में भी फल देनेवाली है, प्रवास काल में माँ के समान है तथा गुप्त धन है ।

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एकोऽपि गुणवान् पुत्रो निर्गुणैश्च शतैर्वरः। एकश्चन्द्रस्तमो हन्ति न च ताराः सहस्रशः॥

भावार्थ :

जिस प्रकार एक चाँद ही रात्रि के अन्धकार को दूर करता है, असंख्य तारे मिलकर भी रात्रि के गहन अन्धकार को दूर नहीं कर सकते, उसी प्रकार एक गुणी पुत्र ही अपने कुल का नाम रोशन करता है, उसे ऊंचा उठता है । सैकड़ों निकम्मे पुत्र मिलकर भी कुल की प्रतिष्ठा को ऊंचा नहीं उठा सकते ।

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मूर्खश्चिरायुर्जातोऽपि तस्माज्जातमृतो वरः। मृतः स चाल्पदुःखाय यावज्जीवं जडो दहेत्॥

भावार्थ :

मुर्ख पुत्र के चिरायु होने से मर जाना अच्छा है, क्योंकि ऐसे पुत्र के मरने पर एक ही बार दुःख होता है, जिन्दा रहने पर वह जीवन भर जलता रहता है ।

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कुग्रामवासः कुलहीन सेवा कुभोजन क्रोधमुखी च भार्या। पुत्रश्च मूर्खो विधवा च कन्या विनाग्निमेते प्रदहन्ति कायम्॥

भावार्थ :

दुष्टों के गावं में रहना, कुलहीन की सेब, कुभोजन, कर्कशा पत्नी, मुर्ख पुत्र तथा विधवा पुत्री ये सब व्यक्ति को बिना आग के जला डालते हैं ।

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किं तया क्रियते धेन्वा या न दोग्ध्रो न गर्भिणी। कोऽर्थः पुत्रेण जातेन यो न विद्वान्न भक्तिमान्॥

भावार्थ :

उस गाय से क्या करना, जो न दूध देती है और न गाभिन होती है । इसी तरह उस पुत्र के जन्म लेने से क्या लाभ, जो न विद्वान हो और न ईश्वर का भक्त हो ।

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संसारातपदग्धानां त्रयो विश्रान्तिहेतवः। अपत्यं च कलत्रं च सतां संगतिरेव च॥

भावार्थ :

सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों को तीन ही चीजें आराम दे सकती हैं - सन्तान, पत्नी तथा सज्जनों की संगति |

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एकाकिना तपो द्वाभ्यां पठनं गायनं त्रिभिः। चतुर्भिगमन क्षेत्रं पञ्चभिर्बहुभि रणम्॥

भावार्थ :

तप अकेले में करना उचित होता है, पढ़ने में दो, गाने मे तीन, जाते समय चार, खेत में पांच व्यक्ति तथा युद्ध में अनेक व्यक्ति होना चाहिए ।

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सा भार्या या सुचिदक्षा सा भार्या या पतिव्रता। सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी ॥

भावार्थ :

वही पत्नी है, जो पवित्र और कुशल हो । वही पत्नी है, जो पतिव्रता हो । वही पत्नी है, जिसे पति से प्रीति हो । वही पत्नी है, जो पति से सत्य बोले ।

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अपुत्रस्य गृहं शून्यं दिशः शून्यास्त्वबान्धवाः। मूर्खस्य हृदयं शून्यं सर्वशून्यं दरिद्रता॥

भावार्थ :

पुत्रहीन के लिए घर सुना हो जाता है, जिसके भाई न हों उसके लिए दिशाएं सूनी हो जाती हैं, मूर्ख का हृदय सूना होता है, किन्तु निर्धन के लिए सब कुछ सूना हो जाता है ।

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अनभ्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे भोजनं विषम्। दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम्॥

भावार्थ :

जिस प्रकार बढ़िया-से बढ़िया भोजन बदहजमी में लाभ करने के स्थान में हानि पहुँचता है और विष का काम करता है, उसी प्रकार निरन्तर अभ्यास न रखने से शास्त्रज्ञान भी मनुष्य के लिए घातक विष के समान हो जाता है ।

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त्यजेद्धर्म दयाहीनं विद्याहीनं गुरुं त्यजेत्। त्यजेत्क्रोधमुखी भार्या निःस्नेहान्बान्धवांस्यजेत्॥

भावार्थ :

धर्म में यदि दया न हो तो उसे त्याग देना चाहिए । विद्याहीन गुरु को, क्रोधी पत्नी को तथा स्नेहहीन बान्धवों को भी त्याग देना चाहिए ।

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कः कालः कानि मित्राणि को देशः को व्ययागमोः। कस्याहं का च मे शक्तिरिति चिन्त्यं मुहुर्मुहुः॥

भावार्थ :

कैसा समय है ? कौन मित्र है ? कैसा स्थान है ? आय-व्यय क्या है ? में किसकी और मेरी क्या शक्ति है ? इसे बार-बार सोचना चाहिए ।

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जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति। अन्नदाता भयत्राता पञ्चैता पितरः स्मृताः॥

भावार्थ :

जन्म देनेवाला, उपनयन संस्कार करनेवाला, विद्या देनेवाला, अन्नदाता तथा भय से रक्षा करनेवाला, ये पांच प्रकार के पिता होते हैं ।

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राजपत्नी गुरोः पत्नी मित्रपत्नी तथैव च। पत्नीमाता स्वमाता च पञ्चैताः मातर स्मृताः॥

भावार्थ :

राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, पत्नी की माँ, तथा अपनी माँ, ये पांच प्रकार का माता होती है

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गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः। पतिरेव गुरुः स्त्रीणां सर्वस्याभ्यगतो गुरुः॥

भावार्थ :

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, इन तीनो वर्णों का गुरु अग्नि है । ब्राह्मण अपने अतिरिक्त सभी वर्णों का गुरु है । स्त्रियों का गुरु पति है । घर में आये हुए अथिति सभी का गुरु होता है ।

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यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः। तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा॥

भावार्थ :

घिसने, काटने, तापने और पीटने, इन चार प्रकारों से जैसे सोने का परीक्षण होता है, इसी प्रकार त्याग, शील, गुण, एवं कर्मों से पुरुष की परीक्षा होती है ।

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तावद् भयेषु भेतव्यं यावद्भयमनागतम्। आगतं तु भयं दृष्टवा प्रहर्तव्यमशङ्कया॥

भावार्थ :

आपत्तियों और संकटों से तभी तक डरना चाहिए जब तक वे दूर हैं, परन्तु वह संकट सिर पर आ जय तो उस पर शंकारहित होकर प्रहार करना चाहिए उन्हें दूर करने का उपय करना चाहिए ।

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एकोदरसमुद्भूता एक नक्षत्र जातका। न भवन्ति समा शीले यथा बदरिकण्टकाः॥

भावार्थ :

एक ही उदार से, एक ही नक्षत्र में जन्म लेने पर भी दो लोगों का स्वभाव एक समान नहीं होता । उदाहरण के लिए बेर और काँटों को देखा जा सकता है ।

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निस्पृहो नाधिकारी स्यान्न कामी भण्डनप्रिया। नो विदग्धः प्रियं ब्रूयात् स्पष्ट वक्ता न वञ्चकः॥

भावार्थ :

विरक्त व्यक्ति किसी विषय का अधिकारी नहीं होता, जो व्यक्ति कामी नहीं होता, उसे बनाव - शृंगार की आवश्यकता नहीं होती । विद्वान व्यक्ति प्रिय नहीं बोलता तथा स्पष्ट बोलनेवाला ठग नहीं होता ।

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आलस्योपहता विद्या परहस्तं गतं धनम्। अल्पबीजहतं क्षेत्रं हतं सैन्यमनायकम्॥

भावार्थ :

आलस्य से विद्या नष्ट हो जाती है । दूसरे के हाथ में धन जाने से धन नष्ट हो जाता है । कम बीज से खेत तथा बिना सेनापति वाली सेना नष्ट हो जाती है ।

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अभ्यासाद्धार्यते विद्या कुलं शीलेन धार्यते। गुणेन ज्ञायते त्वार्य कोपो नेत्रेण गम्यते॥

भावार्थ :

अभ्यास से विद्या का, शील-स्वभाव से कुल का, गुणों से श्रेष्टता का तथा आँखों से क्रोध का पता लग जाता है ।

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वित्तेन रक्ष्यते धर्मो विद्या योगेन रक्ष्यते। मृदुना रक्ष्यते भूपः सत्स्त्रिया रक्ष्यते गृहम्॥

भावार्थ :

धन से धर्म की, योग से विद्या की, मृदुता से राजा की तथा अच्छी स्त्री से घर की रक्षा होती है ।

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दारिद्रयनाशनं दानं शीलं दुर्गतिनाशनम्। अज्ञानतानाशिनी प्रज्ञा भावना भयनाशिनी॥

भावार्थ :

दान दरिद्रता को नष्ट कर देता है । शील स्वभाव से दुःखों का नाश होता है । बुद्धि अज्ञान को नष्ट कर देती है तथा भावना से भय का नाश हो जाता है ।

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नास्ति कामसमो व्याधिर्नास्ति मोहसमो रिपुः। नास्ति कोप समो वह्नि र्नास्ति ज्ञानात्परं सुखम्॥

भावार्थ :

काम के समान व्याधि नहीं है, मोह-अज्ञान के समान कोई शत्रु नहीं है, क्रोध के समान कोई आग नहीं है तथा ज्ञान के समान कोई सुख नहीं है ।

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जन्ममृत्युर्नियत्येको भुनक्तयेकः शुभाशुभम्। नरकेषु पतत्येकः एको याति परां गतिम्॥

भावार्थ :

व्यक्ति संसार में अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मृत्यु को प्राप्त करता है, अकेला ही शुभ-अशुभ कामों का भोग करता है, अकेला ही नरक में पड़ता है तथा अकेला ही परमगति को भी प्राप्त करता है ।

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तृणं ब्रह्मविद स्वर्गं तृणं शूरस्य जीवनम्। जिमाक्षस्य तृणं नारी निःस्पृहस्य तृणं जगत्॥

भावार्थ :

ब्रह्मज्ञानी को स्वर्ग, वीर को अपना जीवन, संयमी को अपना स्त्री तथा निस्पृह को सारा संसार तिनके के समान लगता है ।

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विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गृहेषु च। व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मृतस्य च॥

भावार्थ :

घर से बाहर विदेश में रहने पर विधा मित्र होती है , घर में पत्नी मित्र होती है , रोगी के लिए दवा मित्र होती है तथा मृत्यु के बाद व्यक्ति का धर्म ही उसका मित्र होता है |

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वृथा वृष्टिः समुद्रेषु वृथा तृप्तेषु भोजनम्। वृथा दानं धनाढ्येषु वृथा दीपो दिवापि च॥

भावार्थ :

समुद्र में वर्षा व्यर्थ है । तृप्त को भोजन करना व्यर्थ है । धनी को दान देना व्यर्थ है और दिन में दीपक व्यर्थ है ।

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नास्ति मेघसमं तोयं नास्ति चात्मसमं बलम्। नास्ति चक्षुसमं तेजो नास्ति चान्नसमं प्रियम्॥

भावार्थ :

बादल के समान कोई जल नहीं होता । अपने बल के समान कोई बल नहीं होता । आँखों के समान कोई ज्योति नहीं होती और अन्न के समान कोई प्रिय वस्तु नहीं होती ।

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अधना धनमिच्छन्ति वाचं चैव चतुष्पदाः। मानवाः स्वर्गमिच्छन्ति मोक्षमिच्छन्ति देवताः॥

भावार्थ :

निर्धन व्यक्ति धन की कामना करते हैं और चौपाये अर्थात पशु बोलने की शक्ति चाहते हैं । मनुष्य स्वर्ग की इच्छा करता है और स्वर्ग में रहने वाले देवता मोक्ष-प्राप्ति की इच्छा करते हैं और इस प्रकार जो प्राप्त है सभी उससे आगे की कामना करते हैं ।

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सत्येन धार्यते पृथ्वी सत्येन तपते रविः। सत्येन वाति वायुश्च सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्॥

भावार्थ :

सत्य ही पृथ्वी को धारण करता है । सत्य से ही सूर्य तपता है । सत्य से ही वायु बहती है । सब कुछ सत्य में ही प्रतिष्ठित है ।

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चला लक्ष्मीश्चलाः प्राणाश्चले जीवितमन्दिरे। चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः॥

भावार्थ :

लक्ष्मी चंचल है, प्राण, जीवन, शरीर सब कुछ चंचल और नाशवान है । संसार में केवल धर्म ही निश्चल है ।

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श्रुत्वा धर्म विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्। श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा मोक्षमवाप्नुयात्॥

भावार्थ :

सुनकर ही मनुष्य को अपने धर्म का ज्ञान होता है, सुनकर ही वह दुर्बुद्धि का त्याग करता है । सुनकर ही उसे ज्ञान प्राप्त होता है और सुनकर ही मोक्ष मिलता है ।

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यस्यार्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्थास्तस्य बान्धवाः। यस्यार्थाः स पुमांल्लोके यस्यार्थाः स च पण्डितः॥

भावार्थ :

जिस व्यक्ति के पास पैसा है लोग स्वतः ही उसके मित्र बन जाते हैं । बन्धु- बान्धव भी उसे आ घेरते हैं । जो धनवान है उसी को आज के युग में विद्वान् और सम्मानित व्यक्ति मन जाता है

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तादृशी जायते बुद्धिर्व्यवसायोऽपि तादृशः। सहायास्तादृशा एव यादृशी भवितव्यता॥

भावार्थ :

मनुष्य जैसा भाग्य लेकर आता है उसकी बुद्धि भी उसी समान बन जाती है, कार्य - व्यपार भी उसी अनुरूप मिलता है । उसके सहयोगी, संगी - साथी भी उसके भाग्य के अनुरूप ही होते हैं । सारा क्रियाकलाप भाग्यनुसार ही संचालित होता है ।

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कालः पचति भूतानि कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति कालो हि दुरतिक्रमः॥

भावार्थ :

काल प्राणियों को निगल जाता है । काल सृष्टि का विनाश कर देता है । यह प्राणियों के सो जाने पर भी उनमें विद्यमान रहता है । इसका कोई भी अतिक्रमण नहीं कर सकता ।

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नैव पश्यति जन्मान्धः कामान्धो नैव पश्यति। मदोन्मत्ता न पश्यन्ति अर्थी दोषं न पश्यति॥

भावार्थ :

जन्मान्ध कुछ नहीं देख सकता । ऐसे ही कामान्ध और नशे में पागल बना व्यक्ति भी कुछ नहीं देखता । स्वार्थी व्यक्ति भी किसी में कोई दोष नहीं देखता ।

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स्वयं कर्म कोत्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते। स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते॥

भावार्थ :

प्राणी स्वयं कर्म करता है और स्वयं उसका फल भोगता है । स्वयं संसार में भटकता है और स्वयं इससे मुक्त हो जाता है ।

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राजा राष्ट्रकृतं पापं राज्ञः पापं पुरोहितः। भर्ता च स्त्रीकृतं पापं शिष्य पाप गुरुस्तथा॥

भावार्थ :

राष्ट द्वारा किये गए पाप को राजा भोगता है । राजा के पाप को उसका पुरोहित, पत्नी के पाप को पति तथा शिष्य के पाप को गुरु भोगता है ।

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ऋणकर्ता पिता शत्रुर्माता च व्यभिचारिणी। भार्या रुपवती शत्रुः पुत्र शत्रु र्न पण्डितः॥

भावार्थ :

ऋण करनेवाला पिता शत्रु के समान होता है| व्यभिचारिणी मां भी शत्रु के समान होती है । रूपवती पत्नी शत्रु के समान होती है तथा मुर्ख पुत्र भी शत्रु के समान होता है ।

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लुब्धमर्थेन गृह्णीयात्स्तब्धमञ्जलिकर्मणा। मूर्खश्छन्दानुरोधेन यथार्थवादेन पण्डितम्॥

भावार्थ :

लालची को धन देकर, अहंकारी को हाथ जोड़कर, मुर्ख को उपदेश देकर तथा पण्डित को यथार्थ बात बताकर वश में करना चाहिए ।

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कुराजराज्येन कृतः प्रजासुखं कुमित्रमित्रेण कुतोऽभिनिवृत्तिः। कुदारदारैश्च कुतो गृहे रतिः कृशिष्यमध्यापयतः कुतो यशः॥

भावार्थ :

दुष्ट राजा के राज्य में प्रजा सुखी कैसे रह सकती है ! दुष्ट मित्र से आन्दन कैसे मिल सकता है ! दुष्ट पत्नी से घर में सुख कैसे हो सकता है ! तथा दुष्ट - मूर्ख शिष्य को पढ़ाने से यश कैसे मिल सकता है !

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सिंहादेकं बकादेकं शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्। वायसात्पञ्च शिक्षेच्च षट् शुनस्त्रीणि गर्दभात्॥

भावार्थ :

सिंह से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कौए से पांच, कुत्ते से छः तथा गधे से सात बातें सिखने चाहिए ।

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प्रभूतं कार्यमपि वा तत्परः प्रकर्तुमिच्छति। सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते॥

भावार्थ :

छोटा हो या बड़ा, जो भी काम करना चाहें, उसे अपनी पूरी शक्ति लगाकर करें? यह गुण हमें शेर से सीखना चाहिए

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इन्द्रियाणि च संयम्य बकवत्पण्डितो नरः। देशकालः बलं ज्ञात्वा सर्वकार्याणि साधयेत्॥

भावार्थ :

बगुले के समान इंद्रियों को वश में करके देश, काल एवं बल को जानकर विद्वान अपना कार्य सफल करें ।

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धनधान्य प्रयोगेषु विद्या सङ्ग्रहेषु च। आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जः सुखी भवेत्॥

भावार्थ :

धन और अनाज के लेन - देन, विद्या प्राप्त करते समय, भोजन तथा आपसी व्यवहार में लज़्ज़ा न करनेवाला सुखी रहता है ।

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सुश्रान्तोऽपि वहेद् भारं शीतोष्णं न पश्यति। सन्तुष्टश्चरतो नित्यं त्रीणि शिक्षेच्च गर्दभात्॥

भावार्थ :

विद्वान व्यक्ति को चाहिए की वे गधे से तीन गुण सीखें| जिस प्रकार अत्यधिक थका होने पर भी वह बोझ ढोता रहता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी आलस्य न करके अपने लक्ष्य की प्राप्ति और सिद्धि के लिए सदैव प्रयत्न करते रहना चाहिए । कार्य सिद्धि में ऋतुओं के सर्द और गर्म होने का भी चिंता नहीं करना चाहिए और जिस प्रकार गधा संतुष्ट होकर जहां - तहां चर लेता है, उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति को भी सदा सन्तोष रखकर कर्म में प्रवृत रहना चाहिए ।

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प्रत्युत्थानं च युद्धं च संविभागश्च बन्धुषु। स्वयमाक्रम्य भोक्तं च शिक्षेच्चत्वारि कुक्कुटात्॥

भावार्थ :

समय पर जागना, लड़ना, भाईयों को भगा देना और उनका हिस्सा स्वंय झपटकर खा जाना, ये चार बातें मुर्गे से सीखें ।

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गूढ मैथुनकारित्वं काले काले च संग्रहम्। अप्रमत्तवचनमविश्वासं पञ्च शिक्षेच्च वायसात्॥

भावार्थ :

छिपकर मैथुन करना, समय - समय पर संग्रह करना, सावधान रहना, किसी पर विश्वास न करना और आवाज देकर औरों को भी इकठ्ठा कर लेना, ये पांच गुण कौए से सीखें ।

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वह्वशी स्वल्पसन्तुष्टः सुनिद्रो लघुचेतनः। स्वामिभक्तश्च शूरश्च षडेते श्वानतो गुणाः॥

भावार्थ :

अधिक भूखा होने पर भी थोड़े में ही सन्तोष कर लेना, गहरी नींद में होने पर भी सतर्क रहना, स्वामिभक्त होना और वीरता - कुत्ते से ये छः गुण सीखने चाहिए ।

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अर्थनाश मनस्तापं गृहिण्याश्चरितानि च। नीचं वाक्यं चापमानं मतिमान्न प्रकाशयेत॥

भावार्थ :

धन का नाश हो जाने पर, मन में दुखः होने पर, पत्नी के चाल - चलन का पता लगने पर, नीच व्यक्ति से कुछ घटिया बातें सुन लेने पर तथा स्वयं कहीं से अपमानित होने पर अपने मन की बातों को किसी को नहीं बताना चाहिए । यही समझदारी है ।

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सन्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च। न च तद्धनलुब्धानामितश्चेतश्च धावाताम्॥

भावार्थ :

सन्तोष के अमृत से तृप्त व्यक्तियों को जो सुख और शान्ति मिलता है, वह सुख- शान्ति धन के पीछे इधर-उधर भागनेवालों को नहीं मिलती ।

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सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने। त्रिषु चैव न कर्तव्योऽध्ययने जपदानयोः॥

भावार्थ :

व्यक्ति को अपनी ही पत्नी से संतोष कर लेना चाहिए चाहे वह रूपवती हो अथवा साधारण, वह सुशिक्षित हो अथवा निरक्षर - उसकी पत्नी है यही बड़ी बात है ।

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पादाभ्यां न स्पृशेदग्निं गुरुं ब्राह्मणमेव च। नैव गावं कुमारीं च न वृद्धं न शिशुं तथा॥

भावार्थ :

आग, गुरु, ब्राह्मण, गाय, कुंआरी कन्या, बूढ़े लोग तथा बच्चों को पावं से नहीं छूना चाहिए । ऐसा करना असभ्यता है क्योंकि ये सभी आदरणीय , पूज्य और प्रिय होते हैं ।

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शकटं पञ्चहस्तेन दशहस्तेन वाजिनम्। हस्तिनं शतहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनम्॥

भावार्थ :

बैलगाड़ी से पांच हाथ घोड़े से दस हाथ और हाथी से सौ हाथ दूर रहना चाहिए किन्तु दुष्ट व्यक्ति से बचने के लिए थोड़ा - बहुत अन्तर पर्याप्त नहीं । उससे बचने के लिए तो आवश्यकता पड़ने पर देश भी छोड़ा जा सकता है ।

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हस्ती त्वंकुशमात्रेण बाजो हस्तेन तापते। शृङ्गीलकुटहस्तेन खड्गहस्तेन दुर्जनः॥

भावार्थ :

हाथी को अंकुश से, घोड़े को हाथ से, सींगोंवाले पशुओं को हाथ या लकड़ी से तथा दुष्ट को खड्ग हाथ में लेकर पीटा जाता है ।

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नात्यन्तं सरलेन भाव्यं गत्वा पश्य वनस्थलीम्। छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जास्तिष्ठन्ति पादपाः॥

भावार्थ :

अधिक सीधा नहीं होना चाहिए । जंगल में जाकर देखने से पता लगता है कि सीधे वृक्ष काट लिया जाते हैं, जबकि टेढ़ा-मेढ़ा पेड़ छोड़ दिए जाते हैं ।

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उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम्। तडागोदरसंस्थानां परिदाह इदाम्मससाम्॥

भावार्थ :

तलाब के जल को स्वच्छ रखने के लिए उसका बहते रहना आवश्यक है । इसी प्रकार अर्जित धन का त्याग करते रहना ही उसकी रक्षा है ।

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स्वर्गस्थितानामिह जीवलोके चत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे। दानप्रसङ्गो मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणतर्पणं च॥

भावार्थ :

दान देने में रूचि, मधुर वाणी, देवताओं की पूजा तथा ब्राह्मणों को संतुष्ट रखना, इन चार लक्षणोंवाला व्यक्ति इस लोक में कोई स्वर्ग की आत्मा होता है ।

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अत्यन्तलेपः कटुता च वाणी दरिद्रता च स्वजनेषु वैरम्। नीच प्रसङ्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्॥

भावार्थ :

अत्यन्त क्रोध, कटु वाणी, दरिद्रता, स्वजनों से वैर, नीच लोगों का साथ, कुलहीन की सेवा - नरक की आत्माओं के यही लक्षण होते हैं ।

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शुनः पुच्छमिव व्यर्थं जीवितं विद्यया विना। न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे॥

भावार्थ :

जिस प्रकार कुत्ते की पुंछ से न तो उसके गुप्त अंग छिपते हैं और न वह मच्छरों के काटने से रोक सकती है, इसी प्रकार विद्या से रहित जीवन भी व्यर्थ है । क्योंकि विद्याविहीन मनुष्य मूर्ख होने के कारण न अपनी रक्षा कर सकते है न अपना भरण- पोषण ।

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वाचा च मनसः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया शौचमेतचछौचं परमार्थिनाम्॥

भावार्थ :

मन, वाणी को पवित्र रखना, इंद्रियों को निग्रह, सभी प्राणियों पर दया करना और दूसरों का उपकार करना सबसे बड़ी शुद्धता है ।

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अधमा धनमिच्छन्ति धनं मानं च मध्यमाः। उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्॥

भावार्थ :

अधम धन की इच्छा करतें हैं, मध्यम धन और मान चाहते हैं, किन्तु उत्तम केवल मान चाहते हैं महापुरुषों का धन मान ही है ।

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अजीर्णे भेषजं वारि जीर्णे तद् बलप्रदम्। भोजने चामृतं वारि भोजनान्तें विषप्रदम्॥

भावार्थ :

भोजन न पचने पर जल औषधि के समान होता है । भोजन करते समय जल अमृत है तथा भोजन के बाद विष का काम करता है ।

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काष्ठपाषाण धातुनां कृत्वा भावेन सेवनम्। श्रद्धया च तथा सिद्धिस्तस्य विष्णोः प्रसादतः॥

भावार्थ :

काष्ट, पाषण या धातु की मूर्तियाें की भी भावना और श्रद्धा से उपासना करने पर भगवान की कृपा से सिद्धि मिल जाती है ।

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न देवो विद्यते काष्ठे न पाषाणे न मृण्मये। भावे हि विद्यते देवस्तस्माद् भावो हि कारणम्॥

भावार्थ :

ईश्वर न काष्ट में हैं, न मिट्टी में, न मूर्ति में । वह केवल भावना में रहता है । अतः भावना ही मुख्य है ।

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शान्तितुल्यं तपो नास्ति न सन्तोषात्परं सुखम्। न तृष्णया परो व्याधिर्न च धर्मो दयापरः॥

भावार्थ :

शान्ति के समान तपस्या नहीं है, सन्तोष से बढ़कर कोई सुख नहीं है, तृष्णा से बढ़कर कोई व्याधि नहीं है और दया से बढ़कर कोई धर्म नहीं है ।

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क्रोधो वैवस्वतो राजा तृष्णा वैतरणी नदी। विद्या कामदुधा धेनुः संतोषो नन्दनं वनम्॥

भावार्थ :

क्रोध यमराज है, तृष्णा वैतरणी नदी है, विद्या कामधेनु है और सन्तोष नन्दन वन है ।

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गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्। सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्॥

भावार्थ :

गुण रूप कि शोभा बढ़ाते हैं, शील - स्वभाव कुल की शोभा बढ़ाता है, सिद्धि विद्या की शोभा बढ़ाती है और भोग करना धन की शोभा बढ़ाता है ।

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निर्गुणस्य हतं रूपं दुःशीलस्य हतं कुलम्। असिद्धस्य हता विद्या अभोगस्य हतं धनम्॥

भावार्थ :

गुणहीन का रूप, दुराचारी का कुल तथा अयोग्य व्यक्ति की विद्या नष्ट हो जाती है । धन का भोग न करने से धन भी नष्ट हो जाता है ।

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किं कुलेन विशालेन विद्याहीने च देहिनाम्। दुष्कुलं चापि विदुषी देवैरपि हि पूज्यते॥

भावार्थ :

विद्याहीन होने पर विशाल कुल का क्या करना? विद्वान नीच कुल का भी हो, तो देवताओं द्वारा भी पूजा जाता है ।

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विद्वान् प्रशस्यते लोके विद्वान् सर्वत्र गौरवम्। विद्वया लभते सर्वं विद्या सर्वत्र पूज्यते॥

भावार्थ :

विद्वान की लोक में प्रशंसा होती है, विद्वान को सर्वत्र गौरब मिलता है, विद्या से सब कुछ प्राप्त होता है और विद्या की सर्वत्र पूजा होती है ।

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परस्परस्य मर्माणि ये भाषन्ते नराधमाः। ते एव विलयं यान्ति वल्मीकोदरसर्पवत्॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति परस्पर एक - दूसरे की बातों को अन्य लोगों को बता देते हैं वे बांबी के अन्दर के सांप के समान नष्ट हो जाते हैं ।

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सर्वौषधीनामममृतं प्रधानं सर्वेषु सौख्येष्वशनं प्रधानम्। सर्वेन्द्रियाणां नयनं प्रधानं सर्वेषु गात्रेषु शिरः प्रधानम्॥

भावार्थ :

सभी औषधियों में अमृत (गिलोय) प्रधान है । सभी सुखों में भोजन प्रधान है । सभी इंद्रियों में आँखे मुख्य हैं । सभी अंगों में सर महत्वपूर्ण है ।

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विद्यार्थी सेवकः पान्थः क्षुधार्तो भयकातरः। भाण्डारी च प्रतिहारी सप्तसुप्तान् प्रबोधयेत॥

भावार्थ :

विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भूख से दुःखी, भयभीत, भण्डारी, द्वारपाल - इन सातों को सोते हुए से जगा देना चाहिए ।

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अहिं नृपं च शार्दूलं वराटं बालकं तथा। परश्वानं च मूर्खं च सप्तसुप्तान् बोधयेत्॥

भावार्थ :

सांप, राजा, शेर, बर्र, बच्चा, दूसरे का कुत्ता तथा मूर्ख इनको सोए से नहीं जगाना चाहिए ।

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दरिद्रता धीरयता विराजते कुवस्त्रता स्वच्छतया विराजते। कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते॥

भावार्थ :

धीरज से निर्धनता भी सुन्दर लगती है, साफ रहने पर मामूली वस्त्र भी अच्छे लगते हैं, गर्म किये जाने पर बासी भोजन भी सुन्दर जान परता है और शील - स्वभाव से कुरूपता भी सुन्दर लगती है ।

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धनहीनो न च हीनश्च धनिक स सुनिश्चयः। विद्या रत्नेन हीनो यः स हीनः सर्ववस्तुषु॥

भावार्थ :

धनहीन व्यक्ति हीन नहीं कहा जाता । उसे धनी ही समझना चाहिए । जो विद्यारत्न से है, वस्तुतः वह सभी वस्तुओं में हीन है ।

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दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं जलं पिवेत्। शास्त्रपूतं वदेद् वाक्यं मनः पूतं समाचरेत्॥

भावार्थ :

आँख से अच्छी तरह देख कर पांव रखना चाहिए जल वस्त्र से छानकर पीना चाहिए । शाश्त्रों के अनुसार ही बात कहनी चाहिए तथा जिस काम को करने का मन आज्ञा दे, वही करना चाहिए ।

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सुखार्थी चेत् त्यजेद्विद्यां त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी चेत् त्यजेत्सुखम्। सुखार्थिनः कुतो विद्या कुतो विद्यार्थिनः सुखम्॥

भावार्थ :

यदि सुखों की इच्छा है, तो विद्या त्याग दो और यदि विद्या की इच्छा है, तो सुखों का त्याग कर दो । सुख चाहनेवाले को विद्या कहां तथा विद्या चाहनेवाले को सुख कहां ।

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कवयः किं न पश्यन्ति किं न कुर्वन्ति योषितः। मद्यपा किं न जल्पन्ति किं न खादन्ति वायसाः॥

भावार्थ :

कवि क्या नहीं देखते ? स्त्रियां क्या नहीं करतीं ? शराबी क्या नहीं बकते ? तथा कौए क्या नहीं खाते ?

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रङ्कं करोति राजानं राजानं रङ्कमेव च। धनिनं निर्धनं चैव निर्धनं धनिनं विधिः॥

भावार्थ :

भाग्य रंक को राजा और राजा को रंक बना देता है । धनी को निर्धन तथा निर्धन को धनी बना देता है ।

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येषां न विद्या न तपो न दानं न चापि शीलं च गुणो न धर्मः। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूता मनुष्यरुपेण मृगाश्चरन्ति॥

भावार्थ :

जिनमें विद्या, तपस्या, दान देना, शील, गुण तथा धर्म में से कुछ भी नहीं है, वे मनुष्य पृथ्वी पर भार हैं । वे मनुष्य के रूप में पशु हैं, जो मनुष्यों के बीच में घूमते रहते हैं ।

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वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्रसेवितं द्रुमालयः पत्रफलाम्बु सेवनम्। तृणेशु शय्या शतजीर्णवल्कलं न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनम्॥

भावार्थ :

बाघ, हाथी और सिंह जैसे भयंकर जीवों से घिर हुए वन में रह ले, वृक्ष पर घर बनाकर, फल - पत्ते खाकर और पानी पीकर निर्वाह कर ले, धरती पर घास - फूस बिछाकर सो ले और फटे - पुराने टुकड़े - टुकड़े हुए वृक्षों की छल को ओढ़कर शरीर को धक ले, परन्तु धनहीन होने की दशा में अपने संबन्धियों के साथ कभी न रहे, क्योंकि इससे उसे अपमान और उपेक्षा का जो कड़वा घूंट पीना पड़ता है, वह सर्वथा असह्य होता है ।

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माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः। बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥

भावार्थ :

जिस मनुष्य की माँ लक्ष्मी के समान है, पिता विष्णु के समान है और भाइ - बन्धु विष्णु के भक्त है, उसके लिए अपना घर ही तीनों लोकों के समान है ।

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बुद्धिर्यस्य बलं तस्य निर्बुद्धेस्तु कुतो बलम्। वने सिंहो मदोन्मत्तः शशकेन निपातितः॥

भावार्थ :

जिस व्यक्ति के पास बुद्धि होती है, बल भी भी उसी के पास होता है । बुद्धिहीन का तो बल भी निरर्थक है, क्योंकि बुद्धि के बल पर ही उसका प्रयोग कर सकता है अन्यथा नहीं । बुद्धि के बल पर ही एक बुद्धिमान खरगोश ने अहंकारी सिंह को वन के कुएं में गिराकर मार डाला था ।

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दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता। अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः॥

भावार्थ :

दान देने की आदत, प्रिय बोलना, धीरज तथा उचित ज्ञान - ये चार व्यक्ति के सहज गुण हैं ; जो अभ्यास से नहीं आते ।

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अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि। न शुद्धयतियथाभाण्डं सुरया दाहितं च तत्॥

भावार्थ :

जैसे सुरापात्र अग्नि में जलाने पर भी शुद्ध नहीं होता । इसी प्रकार जिसके मन में मैल हो, वह दुष्ट चाहे सैकड़ों तीर्थ - स्नान का ले, कभी शुद्ध नहीं होता ।

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कामं क्रोधं तथा लोभं स्वाद शृङ्गारकौतुकम्। अतिनिद्राऽतिसेवा च विद्यार्थी ह्याष्ट वर्जयेत्॥

भावार्थ :

काम, क्रोध, लोभ, स्वाद, शृंगार, कौतुक, अधिक सोना, अधिक सेवा करना, इन आठ कामों को विद्यार्थी छोड़ दे ।

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सत्यं माता पिता ज्ञानं धर्मो भ्राता दया सखा। शान्तिः पत्नी क्षमा पुत्रः षडेते मम बान्धवाः॥

भावार्थ :

सत्य मेरी माता है, ज्ञान पिता है, भाई धर्म है, दया मित्र है, शान्ति पत्नी है तथा क्षमा पुत्र है, ये छः ही मेरी सगे- सम्बन्धी हैं ।

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मातृवत् परदारेषु परद्रव्याणि लोष्ठवत्। आत्मवत् सर्वभूतानि यः पश्यति सः पण्डितः॥

भावार्थ :

अन्य व्यक्तियों की स्त्रियों को माता के समान समझे, दूसरें के धन पर नज़र न रखे, उसे पराया समझे और सभी लोगों को अपनी तरह ही समझे ।

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जलबिन्दुनिपातेन क्रमशः पूर्यते घटः। स हेतु सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च॥

भावार्थ :

एक-एक बूंद डालने से क्रमशः घड़ा भर जाता है । इसी तरह विद्या, धर्म और धन का भी संचय करना चाहिए ।

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गतं शोको न कर्तव्यं भविष्यं नैव चिन्तयेत्। वर्तमानेन कालेन प्रवर्तन्ते विचक्षणाः॥

भावार्थ :

बीती बात पर दुःख नहीं करना चाहिए । भविष्य के विषय में भी नहीं सोचना चाहिए । बुद्धिमान लोग वर्तमान समय के अनुसार ही चलते हैै ।

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स्वभावेन हि तुष्यन्ति देवाः सत्पुरुषाः पिताः। ज्ञातयः स्नानपानाभ्यां वाक्यदानेन पण्डिताः॥

भावार्थ :

देवता, सज्जन और पिता स्वभाव से, भाई- बन्धु स्नान- पान से तथा विद्वान वाणी से प्रसन्न होते हैं ।

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यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्तवा वसेत्सुखम्॥

भावार्थ :

जिसे किसी के प्रति प्रेम होता है उसे उसी से भय भी होता है, प्रीति दुःखो का आधार है । स्नेह ही सारे दुःखो का मूल है, अतः स्नेह- बन्धनों को तोड़कर सुखपूर्वक रहना चाहिए ।

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अनागत विधाता च प्रत्युत्पन्नगतिस्तथा। द्वावातौ सुखमेवेते यद्भविष्यो विनश्यति॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति भविष्य में आनेवाली विपत्ति के प्रति जागरूक रहता है और जिसकी बुद्धि तेज़ होती है, ऐसा ही व्यक्ति सुखी रहता है । इसके विपरीत भाग्य के भरोसे बैठा रहनेवाला व्यक्ति नष्ट हो जाता है ।

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जीवन्तं मृतवन्मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम्। मृतो धर्मेण संयुक्तो दीर्घजीवी न संशयः॥

भावार्थ :

जो मनुष्य अपने जीवन में कोई भी अच्छा काम नहीं करता, ऐसा धर्महीन मनुष्य ज़िंदा रहते हुए भी मरे के समान है । जो मनुष्य अपने जीवन में लोगों की भलाई करता है और धर्म संचय कर के मर जाता है, वे मृत्यु के बाद भी यश से लम्बे समय तक जीवित रहता है ।

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धर्मार्थकाममोक्षाणां यस्यैकोऽपि न विद्वते। अजागलस्तनस्येव तस्य जन्म निरर्थकम्॥

भावार्थ :

धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष में से जिस व्यक्ति को एक भी नहीं पाता, उसका जीवन बकरी के गले के स्थन के समान व्यर्थ है ।

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दह्यमानां सुतीव्रेण नीचाः परयशोऽग्निना। अशक्तास्तत्पदं गन्तुं ततो निन्दां प्रकुर्वते॥

भावार्थ :

दुष्ट व्यक्ति दूसरे की उन्नति को देखकर जलता है वह स्वयं उन्नति नहीं कर सकता । इसलिए वह निन्दा करने लगता है

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बन्धन्य विषयासङ्गः मुक्त्यै निर्विषयं मनः। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः॥

भावार्थ :

बुराइयों में मन को लगाना ही बन्धन है और इनसे मन को हटा लेना ही मोक्ष का मार्ग दिखता है । इस प्रकार यह मन ही बन्धन या मोक्ष देनेवाला है

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देहाभिमानगलिते ज्ञानेन परमात्मनः। यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र समाधयः॥

भावार्थ :

परमात्मा का ज्ञान हो जाने पर देह का अभिमान गल जाता है । तब मन जहां भी जाता है, उसे वहीं समाधि लग जाती है ।

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ईप्सितं मनसः सर्वं कस्य सम्पद्यते सुखम्। दैवायत्तं यतः सर्वं तस्मात् सन्तोषमाश्रयेत्॥

भावार्थ :

मन के चाहे सारे सुख किसे मिले हैं । क्यूंकि सब कुछ भाग्य के अधीन है । अतः सन्तोष करना चाहिए ।

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यथा धेनु सहस्रेषु वत्सो गच्छति मातरम्। तथा यच्च कृतं कर्म कर्तारमनुगच्छति॥

भावार्थ :

जैसे हजारों गायों में भी बछरा अपनी ही मां के पास जाता है, उसी तरह किया हुआ कर्म कर्ता के पीछे-पीछे जाता है ।

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अनवस्थितकायस्य न जने न वने सुखम्। जनो दहति संसर्गाद् वनं सगविवर्जनात॥

भावार्थ :

जिसका चित्त स्थिर नहीं होता, उस व्यक्ति को न तो लोगों के बीच में सुख मिलता है और न वन में ही । लोगो के बीच में रहने पर उनका साथ जलता है तथा वन में अकेलापन जलाता है ।

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यथा खनित्वा खनित्रेण भूतले वारि विन्दति। तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रुषुरधिगच्छति॥

भावार्थ :

जैसे फावड़े से खोदकर भूमि से जल निकला जाता है, इसी प्रकार सेवा करनेवाला विद्यार्थी गुरु से विद्या प्राप्त करता है ।

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पृथिव्यां त्रीणी रत्नानि अन्नमापः सुभाषितम् । मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥

भावार्थ :

अनाज, पानी और सबके साथ मधुर बोलना - ये तीन चीजें ही पृथ्वी के सच्चे रत्न हैं । हीरे जवाहरात आदि पत्थर के टुकड़े ही तो हैं । इन्हें रत्न कहना केवल मूर्खता है ।

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आत्मापराधवृक्षस्य फलान्येतानि देहिनाम् । दारिद्रयरोग दुःखानि बन्धनव्यसनानि च॥

भावार्थ :

निर्धनता, रोग, दुःख, बन्धन, और बुरी आदतें सब-कुछ मनुष्य के कर्मो के ही फल होते हैं । जो जैसा बोता है, उसे वैसा ही फल भी मिलता है, इसलिए सदा अच्छे कर्म करने चाहिए ।

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बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥

भावार्थ :

शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छपर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।

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त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥

भावार्थ :

दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।

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जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥

भावार्थ :

जल में तेल, दुष्ट से कहि गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।

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उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥

भावार्थ :

गलती करने पर जो पछतावा होता है, यदि ऐसी मति गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उन्नति नहीं करेगा और किसे पछताना पड़ेगा ?

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दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥

भावार्थ :

मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।

दूरस्थोऽपि न दूरस्थो यो यस्य मनसि स्थितः । यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः॥

भावार्थ :

जो व्यक्ति हृदय में रहता है, वह दूर होने पर भी दूर नहीं है । जो हृदय में नहीं रहता वह समीप रहने पर भी दूर है ।

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प्रस्तावसदृशं वाक्यं प्रभावसदृशं प्रियम् । आत्मशक्तिसमं कोपं यो जानाति स पण्डितः॥

भावार्थ :

किसी सभा में कब क्या बोलना चाहिए, किससे प्रेम करना चाहिए तथा कहां पर कितना क्रोध करना चाहिए जो इन सब बातों को जानता है, उसे पण्डित अर्थात ज्ञानी व्यक्ति कहा जाता है ।

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तावन्मौनेन नीयन्ते कोकिलश्चैव वासराः । यावत्सर्वं जनानन्ददायिनी वाङ्न प्रवर्तते॥

भावार्थ :

कोयल तब तक मौन रहकर दिनों को बिताती है, जब तक कि उसकी मधुर वाणी नहीं फूट पड़ती । यह वाणी सभी को आनन्द देती है । अतः जब भी बोले, मधुर बोलो । कड़वा बोलने से चुप रहना ही बेहतर है ।

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यस्य चित्तं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु । तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटा भसमलेपनैः॥

भावार्थ :

जिस मनुष्य का हृदय सभी प्राणियों के लिए दया से द्रवीभूत हो जाता है, उसे ज्ञान, मोक्ष, जता, भष्म - लेपन आदि से क्या लेना ।

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एकमेवाक्षरं यस्तु गुरुः शिष्यं प्रबोधयेत् । पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद् दत्त्वा चाऽनृणी भवेत् ॥

भावार्थ :

जो गुरु एक अक्षर का भी ज्ञान करता है, उसके ऋण से मुक्त होने के लिए, उसे देने योग्य पृथ्वी में कोई पदार्थ नहीं है ।

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अन्यायोपार्जितं वित्तं दशवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद् विनश्यति॥

भावार्थ :

लक्ष्मी वैसे ही चंचल होती है परन्तु चोरी, जुआ, अन्याय और धोखा देकर कमाया हुआ धन भी स्थिर नहीं रहता, वह बहुत शीघ्र ही नष्ट हो जाता है । अतः व्यक्ति को कभी अन्याय से धन के अर्जन में प्रवृत्त नहीं होना चाहिए ।

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अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्या अल्पं च कालो बहुविघ्नता च । आसारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥

भावार्थ :

शाश्त्र अनेक हैं, विद्याएं अनेक हैं, किन्तु मनुष्य का जीवन बहुत छोटा है, उसमें भी अनेक विघ्न हैं । इसलिए जैसे हंस मिले हुए दूध और पानी में से दूध पि लेता है और पानी को छोड़ देता है उसी तरह काम की बातें ग्रहण कर लो तथा बाकी छोड़ दो

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न निर्मिता केन न दृष्टपूर्वा न श्रूयते हेममयी कुरङ्गी । तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥

भावार्थ :

सोने की हिरणी न तो किसी ने बनायी, न किसी ने इसे देखा और न यह सुनने में ही आता है कि हिरणी सोने का भी होती है । फिर भी रघुनन्दन की तृष्णा देखिये ! वास्तव में विनाश का समय आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है ।

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गुणैरुत्तमतां यान्ति नोच्चैरासनसंस्थितैः । प्रसादशिखरस्थोऽपि किं काको गरुडायते ॥

भावार्थ :

गुणों से ही मनुष्य बड़ा बनता है, न कि किसी ऊंचे स्थान पर बैठ जाने से । राजमहल के शिखर पर बैठ जाने पर भी कौआ गरुड़ नहीं बनता ।

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प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति मानवाः । तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ॥

भावार्थ :

मधुर वचन बोलना, दान के समान है । इससे सभी मनुष्यों को आनन्द मिलता है । अतः मधुर ही बोलना चाहिए । बोलने में कैसी गरीबी !

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पुस्तकेषु च या विद्या परहस्तेषु च यद्धनम् । उत्पन्नेषु च कार्येषु न सा विद्या न तद्धनम् ॥

भावार्थ :

जो विद्या पुस्तक में ही है, और जो धन दूसरे को हाथ में चला गया है, ये दोनों चीजें समय पर काम नहीं आतीं ।

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कृते प्रतिकृतिं कुर्यात् हिंसेन प्रतिहिंसनम् । तत्र दोषो न पतति दुष्टे दौष्ट्यं समाचरेत्॥

भावार्थ :

उपकारी के साथ उपकार, हिंसक के साथ प्रतिहिंसा करनी चाहिए तथा दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए । इसमें कोई दोष नहीं है ।

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यद् दूरं यद् दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् । तत्सर्वं तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् ॥

भावार्थ :

कोई वस्तु चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो, उसका मिलना कितना ही कठिन क्यों न हो, और वह पहुचं से बहार क्यों न हो, कठिन तपस्या अर्थात परिश्रम से उसे भी प्राप्त किया जा सकता है । परिश्रम सबसे शक्तिशाली वस्तु है ।

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नान्नोदकसमं दानं न तिथिर्द्वादशी समा । न गायत्र्याः परो मन्त्रो न मातुर्दैवतं परम् ॥

भावार्थ :

अन्न और जल के दान के समान कोई नहीं है । द्वादशी के समान कोई तिथि नहीं है । गायत्री से बढ़कर कोई मन्त्र नहीं है । माँ से बढ़कर कोई देवता नहीं है ।

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दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन । मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मण्डनेन॥

भावार्थ :

दान से ही हाथों की सुन्दरता है, न कि कंगन पहनने से, शरीर स्नान से ही शुद्ध होता है न कि चन्दन का लेप लगाने से, तृप्ति मान से होता है, न कि भोजन से, मोक्ष ज्ञान से मिलता है, न कि श्रृंगार से ।



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