यह धरती कितना देती है - सुमित्रानंदन पंत की कविता

Mr. Parihar
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 यह धरती कितना देती है - सुमित्रानंदन पंत की कविताएँ


मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,

सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,

रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी

 और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!

पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,

बन्ध्या मिट्टी ने न एक भी पैसा उगला!-

सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!

मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक

 बाल-कल्पना के अपलक पाँवडे बिछाकर

 मैं अबोध था, मैंने ग़लत बीज बोये थे,

ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था!


अर्द्धशती लहराती निकल गयी है तबसे!

कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने,

ग्रीष्म तपे, वर्षा झूली, शरदें मुसकाई;

सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन!

औ' जब फिर से गाढ़ी, ऊदी लालसा लिये

 गहरे, कजरारे बादल बरसे धरती पर,

मैंने कौतूहल-वश आँगन के कोने की

 गीली तह यों ही उँगली से सहलाकर

 बीज सेम के दबा दिये मिट्टी के नीचे-

भू के अंचल में मणि-माणिक बाँध दिये हो!

मैं फिर भूल गया इस छोटी-सी घटना को,

और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन!

किन्तु, एक दिन जब मैं सन्ध्या को आँगन में

 टहल रहा था- तब सहसा, मैने देखा

 उसे हर्ष-विमूढ़ हो उठा मैं विस्मय से!


देखा-आँगन के कोने में कई नवागत

 छोटे-छोटे छाता ताने खड़े हुए हैं!

छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की,

या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं प्यारी-

जो भी हो, वे हरे-हरे उल्लास से भरे

 पंख मारकर उड़ने को उत्सुक लगते थे-

डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चों से!

निर्निमेष, क्षण भर, मैं उनको रहा देखता-

सहसा मुझे स्मरण हो आया-कुछ दिन पहिले

 बीज सेम के मैने रोपे थे आँगन में,

और उन्हीं से बौने पौधो की यह पलटन

 मेरी आँखों के सम्मुख अब खड़ी गर्व से,

नन्हें नाटे पैर पटक, बढती जाती है!


तब से उनको रहा देखता धीरे-धीरे

 अनगिनती पत्तों से लद, भर गयी झाड़ियाँ,

हरे-भरे टंग गये कई मखमली चँदोवे!

बेलें फैल गयी बल खा, आँगन में लहरा,

और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का

 हरे-हरे सौ झरने फूट पड़े ऊपर को-

मैं अवाक रह गया - वंश कैसे बढ़ता है!

छोटे तारों-से छितरे, फूलों के छीटें

 झागों-से लिपटे लहरों श्यामल लतरों पर

 सुन्दर लगते थे, मावस के हँसमुख नभ-से,

चोटी के मोती-से, आँचल के बूटों-से!


ओह, समय पर उनमें कितनी फलियाँ फूटी!

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ-

पतली चौड़ी फलियाँ! उफ उनकी क्या गिनती!

लम्बी-लम्बी अँगुलियों - सी नन्हीं-नन्हीं

 तलवारों-सी पन्ने के प्यारे हारों-सी,

झूठ न समझें चन्द्र कलाओं-सी नित बढ़ती,

सच्चे मोती की लड़ियों-सी, ढेर-ढेर खिल

 झुण्ड-झुण्ड झिलमिलकर कचपचिया तारों-सी!

आह इतनी फलियाँ टूटी, जाड़ों भर खाईं,

सुबह शाम वे घर-घर पकीं, पड़ोस पास के

 जाने-अनजाने सब लोगों में बँटवाईं

 बंधु-बांधवों, मित्रों, अभ्यागत, मँगतों ने

 जी भर-भर दिन-रात महुल्ले भर ने खाईं !-

कितनी सारी फलियाँ, कितनी प्यारी फलियाँ!


यह धरती कितना देती है! धरती माता

 कितना देती है अपने प्यारे पुत्रों को!

नहीं समझ पाया था मैं उसके महत्व को,-

बचपन में छिः स्वार्थ लोभ वश पैसे बोकर!

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ।

 इसमें सच्ची समता के दाने बोने है;

इसमें जन की क्षमता का दाने बोने है,

इसमें मानव-ममता के दाने बोने हैं,-

जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसलें

 मानवता की - जीवन श्रम से हँसे दिशाएँ-

हम जैसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।

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