जीवन-मरण - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविता

Mr. Parihar
0

 जीवन-मरण - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' की कविताएँ


पोर पोर में है भरी तोर मोर की ही बान

मुँह चोर बने आन बान छोड़ बैठी है।

कैसे भला बार बार मुँह की न खाते रहें

सारी मरदानगी ही मुँह मोड़ बैठी है।

हरिऔधा कोई कस कमर सताता क्यों न

कायरता होड़ कर नाता जोड़ बैठी है।

छूट चलती है आँख दोनों ही गयी है फूट

हिन्दुओं में फूट आज पाँव तोड़ बैठी है।1।


बीती बीरताएँ, बात उनकी बनातीं कैसे

धूल से औ तृण-तूल से जो गये बीते हैं।

उनकी रगों में भला बिजली भरेगा कौन

बात के कढ़े जो बार बार मुख सीते हैं।

हरिऔधा हिन्दू कैसे हिन्दू का करेंगे हित

वे मुख अहिन्दुओं का देख देख जीते हैं।

लोहा कैसे लेते हाथ काँपता है लोहा छुए

आँखें कैसे लहू होतीं लहू घूँट पीते हैं।2।


धूल आँख में जो झोंकते हैं उन्हें बंधु मान

बँधो धाक-बंधानों को धूल में मिलाते हैं।

सच्चा मेल जोल मेल जोल चोचलों को मान

बिना माल मिले मोल अपना गँवाते हैं।

हरिऔधा कैसे भला भूल हिन्दुओं की कहें

बन बन भोले भलीभाँति छले जाते हैं।

बात खुलती है खोलने को खोखलापन ही

आँख कैसे खुले आँख खोल ही न पाते हैं।3।


काठ हो गये हैं काठ होने के कुपाठ पढ़

दिल वाले होते कढ़ा दिल का दिवाला है।

बस होते रहे बेबिसात बेबसी से बुने

कस होते अकसों का बढ़ता कसाला है।

हरिऔधा बल होते अबल बने ही रहें

बार बार बैरियों का होता बोलाबाला है।

पाला कैसे मारे पाले पड़े हैं कचाइयों के

हिन्दुओं के लोहू पर पड़ गया पाला है।4।


मन मरा तन में तनिक भी न ताब रही

धान का न धयान बाहु का बल न प्यारा है।

हँसी की न हया परवाह बेबसी की नहीं

अरमान हित का न मान का सहारा है।

हरिऔधा ऐसी ही प्रतीति हो रही है आज

सुत रहा सुत औ न दारा रही दारा है।

वीरता रही न गयी धीरता धारा में धाँस

हिन्दुओं की रग में रही न रक्त धारा है।5।


'दाब मानते हैं' यह भाव बार बार दब

दाँत तले दूब दाव दाब के दिखावेंगे।

आँख देखने की है न उनमें तनिक ताब

बात यह आँख मूँद मूँद के बतावेंगे।

हरिऔधा हिन्दुओं में हिम्मत रही ही नहीं

हार को सदा ही हार गले को बनावेंगे।

चोटी काट काट वे सचाई का सबूत देंगे

यूनिटी को पाँव चाट चाट के बचावेंगे।6।


नवा नवा सिर को सहेंगे सिर पड़ी सारी

दाँत काढ़ काढ़ दाँत अथवा तुड़ावेंगे।

रगड़ रगड़ नाक नाक कटवा हैं रहे

पकड़ पकड़ कान कान पकड़ावेंगे।

हरिऔधा और कौन काम हिन्दुओं से होगा

मिल मिल गले गला अपना दबावेंगे।

पाँव पड़ पड़ मार पाँव में कुल्हाड़ा लेंगे

जोड़ जोड़ हाथ हाथ अपना कटावेंगे।7।


कागज के फूल है गलेंगे बारि बूँद पड़े

पत्ते हैं पवन लगे काँपते दिखावेंगे।

वे तो हैं बलूले बात कहते बिलोप होंगे

ओले हैं अवनि तल परसे बिलावेंगे।

ओस की हैं बूँदें लोप होवेंगे किरण छूते

कुसुम हैं धूप देखते ही कुम्हलावेंगे।

कैसे भला हिन्दू फूँक फूँक के न पाँव रखें

भूआ हैं बिचारे फूँक से ही उड़ जावेंगे।8।


कान होते बहरे बने हैं अंधे आँख होते

बाचा चारु होते मूक रहना बिचारा है।

कर होते लुंज हैं औ पंगु सुपग होते

बलवान होते कहाँ बल का सहारा है।

हरिऔधा दुखित महा है देख देख दशा

तेज होते परम तरणि बना तारा है।

तन होते तन बिन गये हैं ए अतन बन

हिन्दुओं के तन की निराली रक्त धारा है।9।


चूक जो हुई सो हुई चूकते सदा क्यों रहें

चतुर हितू के मिले चौंक अब चेते हैं।

भ्रम की भयानक भँवर में पड़ी क्यों रहे

सँभल सँभल जाति हित नाव खेते हैं।

हरिऔधा कैसे भला भूल हिन्दुओं से होगी

साथ साथ वाले का वे साथ रह देते हैं।

गाली खा खा मंजु मुख लाली है ललाम होती

लात खा खा लात को ललक चूम लेते हैं।10।


काँटे जैसे लघु चुभते हैं पड़े पाँव तले

पेटे धूल पड़ पड़ दृगों में दुख देती है।

कीड़ी की सी बड़ी तुच्छी टीड़ी दल बाँधा बाँधा

दल देती बड़े बड़े दलपति की खेती है।

हरिऔधा हिन्दू जाति में अब कहाँ है जान

चोट पर चोट खा खा कर भी न चेती है।

छेड़े दबे छोटे छोटे कीट भी न छोड़ते हैं

चोट करते हैं चींटे चींटी काट लेती है।11।


लट लट बार बार लोट लोट जाते जो न

कैसे तो हमारी ललनाएँ कोई लूटता।

फटे जो न होते दिल फूटा जो न भाग होता

कैसे लगातार तो हमारा सिर फूटता।

हरिऔधा कटुता न जाति में जो फैली होती

कैसे कूटनीतिवाला कूद कूद कूटता।

टूट हो रही है टूट मन्दिर अनेकों गये

मूर्ति टूटती है, है कलेजा कहाँ टूटता।12।


आन बान वाले बात अपनी बना हैं रहे

आज भी हमारी आन लम्बी तान सोती है।

कान पर जूँ भी नहीं रेंगती किसी के कभी

बद कर बदों की बदी विष बीज बोती है।

हरिऔधा हाथ मलते भी बनता है नहीं

बार बार चूर चूर होता मान-मोती है।

ललनाएँ छिनीं किन्तु खौलता कहाँ है लहू

लाल लुटते हैं आँख लाल भी न होती है।13।


रोते रोते रातें हैं बिताते बहुतेरे लोग

रेते जा रहे हैं गले घर होते रीते हैं।

आग हैं लगाते, हैं जलाते बार बार जल,

चैन लेने देत नहीं पातकी पलीते हैं।

हरिऔधा हिन्दू मेमने हैं बने चेते नहीं

चोट पहुँचाते लहू चाटे वाले चीते हैं।

पटु हो रहे हैं पीटने में पीट पीट पापी

एक कीट से भी बीस कोटि गये बीते हैं।14।


माल पर हाथ मार मार मालामाल बनें

कर के कपाल क्रिया भरें किलकारियाँ।

'खल कर लहू' हाथ अपना लहू से भरें

तन के छतों से छूटें लहू पिचकारियाँ।

धज्जियाँ उड़ाई जाँय भोलेभाले बालकों की

धूल में मिलाई जाँय फूल जैसी नारियाँ।

आग तो कलेजे में लगी ही नहीं हिन्दुओं के

कैसे भला आँख से कढ़ेंगी चिनगारियाँ।15।


झोंपड़ी किसी की फुँकती है तो भले ही फुँके

उसे क्या जो फूँक फूँक देता पर टट्टी है।

कैसे भला लोक-लाभ-लालसा लुभाये उसे

जिसने कि लूटपाट ही की पढ़ी पट्टी है।

हरिऔधा मानवता ममता न होगी उसे

पामरता प्रीति घटे होती जिसे घट्टी है।

पड़ के खटाई में न खट्टी मीठी जान सके

आज भी हमारी आँख की न खुली पट्टी है।16।


नानी मर जाती है कहानी वीरता की सुने

काँप उठते हैं नेक नाम सुने नेजे का।

बुरी बुरी भावना है पुजती भवानी बनी

भय से भरा ही रहता है भाग भेजे का।

हरिऔधा हिन्दुओं का ह्रास होगा कैसे नहीं

फल मिलता है उन्हें हीनता अंगेजे का।

जान होते बिना जान वाला कौन दूसरा है

कौन है कलेजा होते बना बेकलेजे का।17।


कीट कहते हैं बनेंगे कीट पावस के

लत्तो कहते हैं लत्तो इनके उड़ावेंगे।

दूब कहती है दूब दाबेंगे ए दाँतों तले

तृण कहते हैं इन्हें तृण सा बनावेंगे।

हरिऔधा क्या सुन रहे हैं? ए हैं कैसी बातें?

कान खोल हिन्दू क्या इन्हें न सुन पावेंगे।

तूल कहती है ए उड़ेंगे तूल-पुंज सम

धूल कहती है धूल में ए मिल जावेंगे।18।


कैसे खान पान के बखेड़े खड़े होंगे नहीं

कैसे छूत छात के अछूते बन खोवेंगे।

कैसे पंथ मत के प्रपंच में पड़ेंगे नहीं

कैसे भेदभाव काँटे पंथ में न बोवेंगे।

हरिऔधा कैसे पेचपाच न भरेंगे ऐच

कैसे जाति पाँति के कलंक-पंक धोवेंगे।

धार के अनेक रूप रोकती अनेकता है

एका कैसे होगा कैसे हिन्दू एक होवेंगे।19।


दुख हुए दूने हुए सुन्दर सदन सूने

ध्वंस के नमूने बने मन्दिर दिखाते हैं।

दिल में पड़े हैं छाले जीवन के लाले पड़े

पामर के पाले पड़े सुख को ललाते हैं।

हरिऔधा हिन्दुओं की बुरी लतें छूटी नहीं

माल खो खो लोने लाल ललना गँवाते हैं।

तलवे सहलाते पिटते हैं बच पाते नहीं

सह सह लातें रसातल चले जाते हैं।20।


कटेंगे पिटेंगे नोचते हैं जो नुचेंगे आप

कब तक हिन्दुओं को नोच नोच खावेंगे।

पच न सकेगा पेट मार के मरेंगे क्यों न

पामर परम कैसे पाहन पचावेंगे।

हरिऔधा धर्म-बीर धर्म की रखेंगे धाक

ऊधमी अधम कैसे ऊधाम मचावेंगे।

पोटी दूह लेवेंगे चपेटेंगे लँगोटी बाँधा

बोटी बोटी कटे लाज चोटी की बचावेंगे।21।


पातकी जो पातक पयोनिधि समान होंगे

कौतुक तो कुंभ-योनि कासा दिखलावेंगे।

एक मुख से ही पंच मुख का करेंगे काम

दोही बाहु मेरे चार बाहु कहलावेंगे।

अधम अधमता चलेगी हरिऔधा कैसे

दो ही दृग सहस-नयन पद पावेंगे।

लोभ लोभ लोमश लौं अजर अमर होंगे

सारे रक्त-बिन्दु रक्त-बीज बन जावेंगे।22।


बदरंग उनको अनेकता करेगी कैसे

एकता की रंगतों में यदि सन जावेंगे।

हाथ लेंगे आयुध विरोध प्रतिकारक तो

बैरी-बैर-वीरुधा के मूल खन जावेंगे।

हरिऔधा हिन्दू बातें अपनी बनायेंगे तो

उन्नति विधान के वितान तन जावेंगे।

चार चाँद जाति हित चाव में लगा देंगे तो

चन्द जयचन्द भोरचन्द बन जावेंगे।23।


जगेंगे उठेंगे औ गिरावेंगे गरूरियों को

गिरि को करेंगे चूर बज्र बन जावेंगे।

परम प्रपंचियों का कदन प्रपंच कर

भर भर पेंच बाई पूच की पचावेंगे।

हरिऔधा हिन्दू धार धीर धावमान होंगे

अंधाधुंधा बंधुओं को धारा में धाँसावेंगे।

धूम से दलेंगे धामाचौकड़ी मचेगी कैसे

बड़े बड़े ऊधमी को धूल में मिलावेंगे।24।


प्रेम के निकेतनों के प्रेमिक परम होंगे

प्यार भरा प्याला प्यार वाले को पिलावेंगे।

हिंसों की हिंसा को कहेंगे कभी हिंसा नहीं

मान वे अहिंसकों को दिल से दिलावेंगे।

हरिऔधा मानवता मोल को अमोल मान

अमिल मनों को मेल-जोल से मिलावेंगे।

जीवित रहेंगे मर जाति के हितों के लिए

जीवन दे जीवन-विहीन को जिलावेंगे।25।

Post a Comment

0Comments

Post a Comment (0)