वन बेला - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता

Mr. Parihar
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 वन बेला - सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविताएँ


वर्ष का प्रथम


 पृथ्वी के उठे उरोज मंजु पर्वत निरुपम


 किसलयों बँधे,


पिक भ्रमर-गुंज भर मुखर प्राण रच रहे सधे


 प्रणय के गान,

 सुन कर सहसा


 प्रखर से प्रखरतर हुआ तपन-यौवन सहसा


 ऊर्जित,भास्वर


 पुलकित शत शत व्याकुल कर भर

 चूमता रसा को बार बार चुम्बित दिनकर


 क्षोभ से, लोभ से ममता से,


उत्कंठा से, प्रणय के नयन की समता से,


 सर्वस्व दान


 दे कर, ले कर सर्वस्व प्रिया का सुक्रत मान।


 दाब में ग्रीष्म,


भीष्म से भीष्म बढ़ रहा ताप,


 प्रस्वेद कम्प,


ज्यों युग उर पर और चाप--


 और सुख-झम्प,

 निश्वास सघन


 पृथ्वी की--बहती लू; निर्जीवन


 जड़-चेतन।


 यह सान्ध्य समय,

 प्रलय का दृश्य भरता अम्बर,

 पीताभ, अग्निमय, ज्यों दुर्जय,

 निर्धूम, निरभ्र, दिगन्त प्रसर,


कर भस्मीभूत समस्त विश्व को एक शेष,

उड़ रही धूल, नीचे अदृश्य हो रहा देश।


 मैं मन्द-गमन,


धर्माक्त, विरक्त पार्श्व-दर्शन से खींच नयन,

चल रहा नदी-तट को करता मन में विचार--


 'हो गया व्यर्थ जीवन,

 मैं रण में गया हार!

 सोचा न कभी--


अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।'

--इस तरह बहुत कुछ।

 आया निज इच्छित स्थल पर


 बैठ एकान्त देख कर

 मर्माहत स्वर भर!


फिर लगा सोचने यथासूत्र--'मैं भी होता

 यदि राजपुत्र--मैं क्यों न सदा कलंक ढोता,

ये होते--जितने विद्याधर--मेरे अनुचर,

मेरे प्रसाद के लिए विनत-सिर उद्यत-कर;

मैं देता कुछ, रख अधिक, किन्तु जितने पेपर,

सम्मिलित कंठ से गाते मेरी कीर्ति अमर,


 जीवन-चरित्र


 लिख अग्रलेख, अथवा छापते विशाल चित्र।

 इतना भी नहीं, लक्षपति का भी यदि कुमार

 होता मैं, शिक्षा पाता अरब-समुद्र पार,

देश की नीति के मेरे पिता परम पण्डित

 एकाधिकार रखते भी धन पर, अविचल-चित्त

 होते उग्रतर साम्यवादी, करते प्रचार,

चुनती जनता राष्ट्रपति उन्हे ही सुनिर्धार,

पैसे में दस दस राष्ट्रीय गीत रच कर उन पर

 कुछ लोग बेचते गा-गा गर्दभ-मर्दन-स्वर,

हिन्दी-सम्मेलन भी न कभी पीछे को पग

 रखता कि अटल साहित्य कहीं यह हो डगमग,

मैं पाता खबर तार से त्वरित समुद्र-पार,

लार्ड के लाड़लों को देता दावत विहार;

इस तरह खर्च केवल सहस्र षट मास-मास

 पूरा कर आता लौट योग्य निज पिता पास।

 वायुयान से, भारत पर रखता चरण-कमल,

पत्रों के प्रतिनिधि-दल में मच जाती हलचल,

दौड़ते सभी, कैमरा हाथ, कहते सत्वर

 निज अभिप्राय, मैं सभ्य मान जाता झुक कर

 होता फिर खड़ा इधर को मुख कर कभी उधर,

बीसियों भाव की दृष्टि सतत नीचे ऊपर

 फिर देता दृढ़ संदेश देश को मर्मांतिक,

भाषा के बिना न रहती अन्य गंध प्रांतिक,

जितने रूस के भाव, मैं कह जाता अस्थिर,

समझते विचक्षण ही जब वे छपते फिर-फिर,


 फिर पिता संग


 जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग;


 करता प्रचार


 मंच पर खड़ा हो, साम्यवाद इतना उदार।


 तप तप मस्तक


 हो गया सान्ध्य-नभ का रक्ताभ दिगन्त-फलक,

खोली आँखें आतुरता से, देखा अमन्द

 प्रेयसी के अलक से आयी ज्यों स्निग्ध गन्ध,

 'आया हूँ मैं तो यहाँ अकेला, रहा बैठ'


 सोचा सत्वर,


देखा फिर कर, घिर कर हँसती उपवन-बेला


 जीवन में भर

 यह ताप, त्रास


 मस्तक पर ले कर उठी अतल की अतुल साँस,


 ज्यों सिद्धि परम


 भेद कर कर्म जीवन के दुस्तर क्लेश, सुषम


 आयी ऊपर,


जैसे पार कर क्षीर सागर


 अप्सरा सुघर


 सिक्त-तन-केश शत लहरों पर

 काँपती विश्व के चकित दृश्य के दर्शन-शर।


 बोला मैं--बेला नहीं ध्यान


 लोगों का जहाँ खिली हो बन कर वन्य गान!


 जब तार प्रखर,


लघु प्याले में अतल की सुशीतलता ज्यों कर

 तुम करा रही हो यह सुगन्ध की सुरा पान!

लाज से नम्र हो उठा, चला मैं और पास

 सहसा बह चली सान्ध्य बेला की सुबातास,

झुक-झुक, तन-तन, फिर झूम-झूम, हँस-हँस झकोर

 चिर-परिचित चितवन डाल, सहज मुखड़ा मरोर,

भर मुहुर्मुहर, तन-गन्ध विकल बोली बेला--

'मैं देती हूँ सर्वस्व, छुओ मत, अवहेला

 की अपनी स्थिति की जो तुमने, अपवित्र स्पर्श

 हो गया तुम्हारा, रुको, दूर से करो दर्श।'


 मैं रुका वहीं

 वह शिखा नवल


 आलोक स्निग्ध भर दिखा गयी पथ जो उज्ज्वल;

मैंने स्तुति की--"हे वन्य वह्नि की तन्वि-नवल,

कविता में कहाँ खुले ऐसे दल दुग्ध-धवल?


 यह अपल स्नेह--


विश्व के प्रणयि-प्रणयिनियों का


 हार उर गेह?--

 गति सहज मन्द


 यह कहाँ--कहाँ वामालक चुम्बित पुलक गन्ध!

 'केवल आपा खोया, खेला


 इस जीवन में',

 कह सिहरी तन में वन बेला!


कूऊ कू--ऊ' बोली कोयल, अन्तिम सुख-स्वर,

 'पी कहाँ पपीहा-प्रिय मधुर विष गयी छहर,


 उर बढ़ा आयु


 पल्लव को हिला हरित बह गयी वायु,

लहरों में कम्प और लेकर उत्सुक सरिता


 तैरी, देखती तमश्चरिता,


छबि बेला की नभ की ताराएँ निरुपमिता,


 शत-नयन-दृष्टि


 विस्मय में भर कर रही विविध-आलोक-सृष्टि।


 भाव में हरा मैं, देख मन्द हँस दी बेला,

बोली अस्फुट स्वर से--'यह जीवन का मेला।

 चमकता सुघर बाहरी वस्तुओं को लेकर,

त्यों-त्यों आत्मा की निधि पावन, बनती पत्थर।


 बिकती जो कौड़ी-मोल

 यहाँ होगी कोई इस निर्जन में,


खोजो, यदि हो समतोल

 वहाँ कोई, विश्व के नगर-धन में।


 है वहाँ मान,


इसलिए बड़ा है एक, शेष छोटे अजान,


 पर ज्ञान जहाँ,


देखना--बड़े-छोटे असमान समान वहाँ


 सब सुहृद्वर्ग


 उनकी आँखों की आभा से दिग्देश स्वर्ग।

 बोला मैं--'यही सत्य सुन्दर।

 नाचती वृन्त पर तुम, ऊपर

 होता जब उपल-प्रहार-प्रखर


 अपनी कविता


 तुम रहो एक मेरे उर में

 अपनी छबि में शुचि संचरिता।'


 फिर उषःकाल


 मैं गया टहलता हुआ; बेल की झुका डाल


 तोड़ता फूल कोई ब्राह्मण,

 'जाती हूँ मैं' बोली बेला,


जीवन प्रिय के चरणों में करने को अर्पण


 देखती रही;


निस्वन, प्रभात की वायु बही।

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