History of Eastern Chalukya Empire in Hindi In Details :- पूर्वी चालुक्य साम्राज्य का इतिहास विस्तार में

Mr. Parihar
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पूर्वी चालुक्य साम्राज्य का इतिहास | History of Eastern Chalukya Empire in Hindi.
वेंगी का प्राचीन राज्य आधुनिक आन्ध्र प्रदेश की कृष्णा तथा गोदावरी नदियों के बीच स्थित था । वेंगी की पहचान गोदावरी जिले में स्थित णेश्चेगि नामक स्थान से की जाती है ।
बातापी के प्रसिद्ध चालुक्य शासक पुलकेशिन् द्वितीय ने इसे जीतकर अपने छोटे भाई विकवर्धन को यहाँ का उपराजा बनाया था । कालान्तर में उसी ने यहाँ एक स्वतन्त्र चालुक्य वंश की स्थापना की जिसे ‘पूर्वी चालुक्यवंश’ कहा जाता है ।
राजनैतिक इतिहास:
i. विष्णुवर्धन:
यह एक योग्य तथा शक्तिशाली राजा था । बहुत समय तक वह अपने भाई के प्रति निष्ठावान रहा तथा उसकी ओर से विभिन्न युद्धों में भाग लिया । जिस समय पुलकेशिन् पल्लव नरेश नरसिंहवर्मा प्रथम के साथ भीषण युद्ध में फंसा हुआ था उसी समय विष्णुवर्धन ने वेंगी में अपनी स्वाधीनता घोषित कर दी ।
इसकी सूचना देने के लिये उसने दो ताम्रपत्र जारी किये तथा विषमसिडि की उपाधि धारण की । इन लेखों से पता चलता है कि उसके राज्य में कलिंग का कुछ भाग सम्मिलित था । दक्षिण में विष्णुकुंडिन् वंश का मयणभट्टारक तथा कोंडपडुमटि वंश का बुद्धराज उसके सामन्त के रूप में शासन करते थे ।
इस प्रकार विष्णुवर्धन ने सम्पूर्ण देंगी राज्य पर अपना अधिकार कर लिया । उसका राज्य विशाखापट्टनम् से उत्तरी नेल्लोर तक फैला था । उसने देंगी को अपनी राजधानी बनाई तथा 615 ई॰ से 633 ई॰ तक शासन किया ।
ii. जयसिंह प्रथम:
विष्णुवर्धन द्वितीय उसके बाद शासक हुआ । उसने पृथ्वीवल्लभ, पृथ्वीजयसिंह तथा सर्वसिद्धि जैसी उपाधियाँ धारण की । एक लेख में उसे कई सामन्त शासकों को पराजिन करने वाला बताया गया है लेकिन उसके शासन-काल की प्रमुख घटनाओं के विषय में हमें ज्ञात नहीं है । जयसिंह का उत्तराधिकारी उसका भाई इन्द्रवर्मन् हुआ । चालुक्य लेखों के अनुसार उसने केवल एक सप्ताह तक राज्य किया ।
iii. विष्णुवर्धन द्वितीय:
उसके बाद उसका पुत्र विष्णुवर्धन द्वितीय (633-663 ई॰) गद्दी पर बैठा । उसने विषमसिद्धि, मकरध्वज तथा प्रलयादित्य जैसी उपाधियाँ ग्रहण कीं ।
iv. मंगि युवराज:
उसका पुत्र तथा उत्तराधिकारी मंगि युवराज था जिसे विजयसिद्धि और सर्वलोकाश्रय भी कहा जाता है । उसने 25 वर्षों (672-697 ई॰) तक शासन किया ।
v. जयसिंह द्वितीय:
मंगी युवराज का पुत्र जयसिंह जिसे सर्वलोकाश्रय तथा सर्वसिद्धि भी कहा गया है, अपने पिता की मृत्यु के बाद राजा बना तथा 13 वर्षों (697-710 ई॰) तक शासन किया । उसके समय में उसके छोटे भाई विजयादित्यवर्मन् ने, जो एलमंचिलि का वायसराय था, अपने को स्वतन्त्र कर लिया और महाराज की उपाधि ग्रहण की । उसके बाद एलमंचिलि पर उसके पुत्र कोकिलिवर्मन् का अधिकार हो गया ।
vi. कोकुलि विक्रमादित्य:
जयसिंह द्वितीय की मृत्यु के बाद वेंगी पर उसके सौतेले भाई कोकुलि विक्रमादित्य ने अधिकार कर लिया तथा उसने केवल छ: माह तक राज्य किया । उसने एलमयिलि पर पुन अधिकार कर लिया ।
vii. विष्णुवर्धन तृतीय:
कोकुलि विक्रमादित्य को हटाकर उसका बड़ा भाई विष्णुवर्धन तृतीय (710-746 ई॰) राजा बन बैठा । उसने एलमंचिलि क्षेत्र को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया । उसके समय में पृथ्वीव्याघ्र नामक एक निषाद शासक ने उसके राज्य के दक्षिणी भाग पर अधिकार कर लिया । परन्तु वाद में विष्णुवर्धन ने उसे पुन जीत लिया ।
viii. विजयादित्य प्रथम:
विष्णुवर्धन तृतीय के पश्चात् उसका पुत्र विजयादित्य प्रथम (746-764 ई॰) वेंगी के चालुक्य वंश का राजा बना । उसने त्रिभुवनांकुश और विजयसिद्धि जैसी उपाधियाँ धारण की । उसके समय में बादामी के चालुक्य वंश का राष्ट्रकूटों ने उन्मूलन कर दिया । इसके वाद राष्ट्रकूटों का वेंगी के पूर्वी चालुक्यों के साथ संघर्ष प्रारम्भ हुआ ।
ix. विष्णुवर्धन चतुर्थ:
विजयादित्य प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र विष्णुवर्धन चतुर्थ (764-799 ई॰) राजा बना । इस समय राष्ट्रकूट वंश में कृष्ण प्रथम का शासन था । उसने अपने पुत्र गोविन्द द्वितीय को देंगी के चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने के लिये भेजा ।
राष्ट्रकूट वश के अलस अभिलेख (769 ई॰) से पता चलता है कि ‘युवराज गोविन्द द्वितीय ने वेंगी के विरुद्ध अभियान का नेतृत्व किया था तथा उसने मुसी और कृष्णा नदियों के संगम पर अपने विजयशिविर में कोष, सेना तथा भूमि सहित वेगिनरेश के समर्पण को स्वीकार किया था ।’
इससे ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि विजयादित्य ने बिना युद्ध के ही राष्ट्रकूट नरेश की अधीनता मान ली तथा उसे भेंट-उपहारादि से संतुष्ट कर दिया था । इसके बाद राष्ट्रकूट राज्य में उत्तराधिकार के प्रश्न पर गोविन्द द्वितीय और उसके भाई ध्रुव में संघर्ष छिड़ा ।
विष्णुवर्धन ने गोविन्द का साथ दिया परन्तु ध्रुव विजयी रहा और गोविन्द की हत्या कर दी गयी । अपने को राष्ट्रकूट वंश का राजा बना लेने के वाद ध्रुव ने वेंगी पर पूरी शक्ति के साथ आक्रमण किया । विष्णुवर्धन पराजित हुआ और उसने ध्रुव की अधीनता में रहना स्वीकार कर लिया ।
उसने अपनी पुत्री शीलमहादेवी का विवाह भी ध्रुव के साथ कर दिया । वेंगी पर राष्ट्रकूटों का अधिकार ध्रुव के बाद उसके पुत्र गोविन्द तृतीय के समय में भी बना रहा क्योंकि उसके लेखों में कहा गया है कि चेंगि नरेश अपने स्वामी की आज्ञाओं का पालन करने के लिये सदा तैयार रहता था ।
x. विजयादित्य द्वितीय:
विष्णुवर्धन चतुर्थ के बाद उसका पुत्र विजयादित्य द्वितीय (799-887 ई॰) राजा बना । उसने ‘परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर’ की उपाधि ग्रहण की । वह अपने वश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासकों में से एक था । प्रारम्भ में उसे कुछ असफलताओं का सामना करना पड़ा । उसका भाई भीम सालुल्लि उसका साथ छोड़कर राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय से जा मिला ।
फलस्वरूप गोविन्द तृतीय ने विजयादित्य को पराजित कर वेंगी के राजसिंहासन पर भीम को बैठा दिया । परन्तु 814 ई॰ में गोविन्द की मृत्यु के बाद विजयादित्य ने भीम को गद्दी से उतार कर उसे पुन अपने अधिकार में कर लिया । अपनी सफलता से उत्साहित होकर विजयादित्य ने रुक सेना के साथ राष्ट्रकूट राज्य पर आक्रमण कर दिया ।
चालुक्य सेना राष्ट्रकूट राज्य को रौंदते हुए स्तम्भनगर (गुजरात स्थित वर्तमान का तक जा पहुँची । उसने इस नगर को लूटा तथा ध्वस्त कर दिया । इसका प्रमाण राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय के नौसारी ताम्रपत्र से भी मिलता है जिसके अनुसार राष्ट्रकूट राजलक्ष्मी चालुक्य रूपी अथाह समुद्र में विलीन हो गयी थी तथा स्तम्भनगर पूर्णतया विनष्ट कर दिया गया था ।
राष्ट्रकूटों के साथ-साथ उसने दक्षिणी गंगों की शक्ति का विनाश किया । परन्तु राष्ट्रकूटों ने शीघ्र ही अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली तथा अमोघवर्ष प्रथम ने चालुक्य सेना को राज्य के बाहर खदेड़ दिया । पूर्वी चालुक्यों को पुन अमोघवर्ष की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी । विजयादित्य शेव मतानुयायी था । बाद के लेखों में उसे 108 शैव मन्दिरों के निर्माण का श्रेय प्रदान किया गया है ।
xi. विजयादित्य तृतीय:
विजयादित्य द्वितीय के बाद उसका पुत्र विष्णुवर्धन पञ्चम शासक बना जिसने अठारह या बीस माह तक शासन किया । उसके कई पुत्र थे जिनमें से विजयादित्य तृतीय वेंगी की गद्दी पर बैठा उसने 44 वर्षों (848-892 ई॰) तक राज्य किया ।
विजयादित्य तृतीय एक दिग्विजयी शासक था जिसने दक्षिण और उत्तर में अनेक शक्तियों को पराजित किया । उसका सबसे पहला संघर्ष नेल्लोर नगर तथा उसके आस-पास रहने वाले बोयों से हुआ । वे लड़ाकू जाति के लोग थे जो पहले चालुक्यों की अधीनता स्वीकार करते थे ।
राजा बनने के पहले ही विजयादित्य ने उनके ऊपर आक्रमण कर उन्हें जीता तथा उनके राज्य को चालुक्य साम्राज्य में शामिल कर लिया था । किन्तु विष्णुवर्धन पंचम के मरते ही बोयों ने चालुक्यों की प्रभुसत्ता स्वीकार करने से इन्कार कर दिया ।
विजयादित्य ने उन्हें दण्डित करने के उद्देश्य से सेनापति पंडरंग के नेतृत्व में एक सेना को उनके विरुद्ध भेजा । पंडरंग ने उनके दो सुदृढ़ दुर्गों कट्टेम तथा नेल्लोर को ध्वस्त कर दिया । बीय पराजित हुए तथा विजय करता हुआ पैडरंग तोण्डैमण्डलम् की सीमा तक गया तथा पुलिकत झील के तट पर जाकर ठहरा ।
यहाँ उसने अपने नाम से एक नगर तथा पंडरंग महेश्वर नाम से एक शैव मन्दिर निर्मित करवाया था । इस विजय के फलस्वरूप दक्षिणी पूर्वी तेलगु प्रदेश जो पहले पल्लवों की सैनिक जागीर था, स्थायी रूप से चालुक्य साम्राज्य में मिला लिया गया । पंडरंग को इस क्षेत्र का राज्यपाल बना दिया गया ।
इसके याद पंडरंग ने राहण नामक सरदार को युद्ध में पराजित किया । यह निश्चित नहीं है कि राहण किस प्रदेश का शासक था । इन विजयों के फलस्वरूप पूर्वी चालुक्यों की शक्ति एवं प्रतिष्ठा में पर्याप्त वृद्धि हुई । नीलकंठ शास्त्री का विचार है कि विजयादित्य का सैन्य अभियान राष्ट्रकूटों द्वारा उसकी क्षणिक पराजय के फलस्वरूप कुछ समय के लिये अवरुद्ध हो गया ।
गत होता है कि विजयादित्य ने राष्ट्रकूटों के नगर स्तम्भपुरी के ऊपर आक्रमण कर उसे ध्वस्त कर दिया । राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष इससे अत्यन्त क्रुद्ध हुआ तथा उसने प्रतिशोधात्मक कार्यवाही की । उसने एक सेना देंगी की ओर भेजौ । विजयादित्य तथा अमोघवर्ष की सेनाओं के बीच कुन्यूम् के पास बींगावल्लि नामक ग्राम में घमासान युद्ध हुआ ।
इसमें विजयादित्य की सेनायें पराजित हुई तथा वह अमोघवर्ष के सम्मुख आत्मसमर्पण करने तथा उसे अपना सम्राट मानने को बाध्य हुआ । किन्तु अमोघवर्ष की मृत्यु के बाद विजयादित्य ने पुन अपने को स्वतन्त्र कर दिया तथा अपना विजय कार्य प्रारम्भ किया ।
किन्तु कुछ विद्वान् अमोयवर्ष द्वारा पराजित किये गये चालुक्य नरेश को विजयादित्य द्वितीय मानते है । यदि इसे स्वीकार किया जाय तो यह नहीं कहा जा सकता कि विजयादित्य तृतीय के सैन्य अभियानों में कोई अवरोध उत्पन्न हुआ था । उसके शासन काल में तालकाड के पश्चिमी गंग शासक पेर्मानाडि ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी ।
अनेक राष्ट्रकूट सामन्तों, विशेषकर नोलमवाडि के पल्लव प्रमुखों ने उसका साथ दिया । विजयादित्य ने उसके विरुद्ध सेना के साथ प्रस्थान किया । मार्ग में नोलम्ब राष्ट्र के शासक मंगिराज ने उसका प्रतिरोध किया । दोनों में एक युद्ध हुआ जिसमें विजयादित्य ने अपने विश्वासपात्र सैनिक सहायक विनयडिशर्मन् की सहायता से नोलम्द सेना को पराजित किया तथा युद्ध में मंगि की हत्या कर दी ।
तत्पश्चात् गगवाद्धिं में प्रवेश कर उसने गंगों को बुरी तरह पराजित किया । गंगनरेश पेर्मानाडि ने पुन उसकी अधीनता मान ली । सतलुरु दान पत्र से मूचना मिलती है कि विजयादित्य ने पल्लवों तथा पाएको को भी युद्ध में जीता था ।
धर्मवरम लेख के अनुसार उसके सेनापति पंडरग ने किसी चोल राजा को संरक्षण प्रदान किया था । इन युद्धों का विस्तृत विवरण प्राप्त नहीं होता । उसके द्वारा पराजित किया गया पल्लव शासक अपराजित था । विजयादित्य ने पल्लवों की राजधानी काञ्चि को लूटा तथा वहाँ से भारी सोना, रत्न आदि अपने साथ ले गया ।
जिस चोल राजा को उसने शरण दी वह संभवत: विजयालय था । उसके समय में पाण्ड्य शासक मारंजडेयन ने उस पर आक्रमण कर चोल राज्य पर अधिकार कर लिया था जिसके फलस्वरूप उसने विजयादित्य के दरवार में शरण ली थी । विजयादित्य ने पाण्ड्य नरेश को पराजित किया तथा विजयालय को पुन चोलवंश की गद्‌दी पर आसीन करवा दिया ।
पल्लव, बोल तथा पाण्ड्य उस समय सुदूर दक्षिण की प्रमुख शक्तियां थीं । इन्हें पराजित कर देने के कारण विजयादित्य की धाक सम्पूर्ण दक्षिण भारत में जम गयी । सुदूर दक्षिण तक अपनी विजय पताका फहराने के बाद विजयादित्य ने उत्तर की ओर सैन्य अभियान किया ।
इसमें उसने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय तथा उसके सहयोगी डाहल के कलचुरि शासक सकिल (शंकरगण) की मिली-जुली सेनाओं को पराजित किया था । पहले इन दोनों ने मिलकर विजयादित्य के राज्य पर आक्रमण किया । युद्ध में दोनों बुरी तरह पराजित किये गये । कृष्ण ने भाग कर डाहल के कलचुरि राज्य में शरण ली ।
विजयादित्य के सेनापति पडरंग ने वहाँ भी उसका पीछा किया । मार्ग में राष्ट्रकूटों तथा कलचुरियों के सामन्तों से भी उसे युद्ध करना पड़ा । लेकिन सभी को उसने नतमस्तक किया । उसने वेमुलवाड के चालुक्य शासक वड्डेग, जो राष्ट्रकूटों का सामन्त था, को जीता, चक्रकूट नगर को भी जला दिया जो प्राचीन बस्तर राज्य में स्थित था, दक्षिणी कोशल के शासक के हाथियों पर अधिकार कर लिया तथा कलिंग के गंग शासक से कर प्राप्त किया ।
इसके बाद उसकी सेना ने चेदि राज्य में प्रवेश किया । डाहल तथा दलेनाड को ध्वस्त कर दिया गया । किरणपुर (बालाघाट, म॰ प्र॰) के युद्ध में विजयादित्य तथा कृष्ण द्वितीय और शकरगण की सेनाओं ये पुन युद्ध हुआ । इसमें चालुक्यों को सफलता मिली । आक्रमणकारियों ने डाहल राज्य के दो प्रसिद्ध नगरों-किरणपुर तथा अचलपुर-को जला दिया ।
मजबूर होकर कृष्ण द्वितीय को संधि करनी पड़ी । विजयादित्य ने राष्ट्रकूटों का राजचिन्ह छीन लिया, बल्लभ की उपाधि धारण की तथा अपने को समस्त दक्षिणापथ एवं त्रिकीलंग प्रदेश का सार्वभौम सम्राट घोषित कर दिया । अब वह अपने साम्राज्य विस्तार से संतुष्ट था ।
कृष्ण द्वितीय ने स्वयं उसके सन्मुख उपस्थित होकर उसका अभिवादन किया तथा उसके अस्त्र-शस्त्रों की पूजा कर उसे प्रसन्न किया । विजयादित्य ने कृष्ण को उसका राज्य वापस कर दिया तथा अपनी राजधानी लौट आया । इस प्रकार विजयादित्य तृतीय वेंगी के चालुक्य वंश का महानतम सम्राट था ।
उसने अपने साम्राज्य का विस्तार उत्तर में महेन्द्रगिरि में लेकर दक्षिण में पुलिकत झील तक किया । वस्तुत: यह वेंगी के चालुक्य साम्राज्य का चरमोत्कर्ष था । इस कार्य मैं उसके महान् एवं सुयोग्य सेनापति पंडरग का योगदान विशेष रूप से सराहनीय है । चौवालीस वर्षों के दीर्घकालीन शासन के उपरान्त 892 ई॰ में विजयादित्य की मृन्द्व हुई ।
xii. भीम प्रथम:
विजयादित्य तृतीय के बाद उसका भतीजा भीम प्रथम चालुक्य वंश का राजा बना । उसकी प्रारम्भिक स्थिति अत्यन्त संकटपूर्ण थी । उसके चाचा तथा कुछ अन्य पारिवारिक सदस्यों न उसके राज्यारोहण का विरोध किया । सोचा युद्धमल्ल ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण द्वितीय से सहायता मांगी ।
कृष्ण ने विजयादित्य के हाथों हुई अपनी पराभव का बदला लेने के लिये तुरन्त एक सेना वेंगी भेजी । भीम कृष्ण द्वितीय के सामन्त वडेंग द्वारा पराजित हुआ और बन्दी बना लिया गया । कृष्ण द्वितीय के सैनिकों ने तथा नेल्लोर तक दक्षिण में चालुक्य राज्य को रौंद डाला । किन्तु राष्ट्रकूटों की विजय स्थायी नहीं रही ।
पूर्वी चालुक्यों के कुछ स्वामीभक्त सामन्तों तथा सहायकों ने मुदुगोन्ड के चालुक्य शासक कुसुमायुध के नेतृत्व में संगठित होकर आक्रमणकारियों का सामना किया तथा उन्हें अपने राज्य में बाहर भगा दिया । तत्पश्चात् भीम प्रथम ने 892 ई॰ में वेंगी का सिंहासन प्राप्त किया ।
राज्यारोहण के बाद उसने विष्णुवर्धन की उपाधि ग्रहण की । किन्तु वह शान्तिपूर्वक शासन नहीं कर सका । कुछ समय बाद कृष्ण द्वितीय ने अपने सेनापति दण्डेश गुण्डय के नेतृत्व में पुन एक सेना चालुक्य राज्य पर आक्रमण करने को भेजी ।
इसमें राष्ट्रकूटों की मदद के लिये लाट तथा कर्नाट प्रदेश की सेनायें भी थी । भीम तथा उसके पुत्र (इरिमर्तगन्ड ने निर्वधपुर निद्यवोलु) में राष्ट्रकूट सेनाओं को पराजित किया । इसके बाद पेरुवगुरुग्राम में राष्ट्रकूटों तथा चालुक्यों में पुन युद्ध हुआ ।
इस युद्ध में भी भीम प्रथम की ही विजय हुई किन्तु उसका पुत्र मारा गया । उधर राष्ट्रकूट सेनापति दण्डेश भी वीरगति को प्राप्त हुआ । इस प्रकार भीम ने अपने राज्य को राष्ट्रकूटों के आक्रमण से सुरक्षित बचा लिया । भीम के राज्य काल की अन्य घटनाओं के बारे में जानकारी नहीं मिलती । वह शिव का उपासक था तथा उनकी उपासना के लिये मन्दिर बनवाये थे । उसने 922 ई॰ तक राज्य किया ।
xiii. विजयादित्य चतुर्थ:
भीम के बाद विजयादित्य चतुर्थ राजा हुआ । उसने भी राष्ट्रकूट सेना को पराजित किया। उसका कलिग के गंगवंश के साथ भी संघर्ष हुआ । राजा बनने के बाद-उसने एक सेना के साथ कलिंग राज्य पर आक्रमण किया । कृष्णा नदी के दक्षिण में वीरजापुरी में उसका कलिंग की सेना से युद्ध हुआ । इसमें यद्यपि विजयादित्य की सेना जीत गयी लेकिन वह स्वयं युद्ध भूमि में मारा गया । उसने केवल छ: माह तक ही शासन किया ।
xiv. अम्म प्रथम:
यह विजयादित्य चतुर्थ का ज्येष्ठ पुत्र था तथा उसकी मृत्यु के बाद राजा बना । उसने ‘राजमहेन्द्र’ तथा जर्वलोकाश्रथ की उपाधियाँ धारण कीं । इस समय देंगी के चालुक्य राज्य की स्थिति अत्यन्त नाजुक थी । किन्तु अम्म ने अपने सभी विरोधियों को नियंत्रित कर अपनी स्थिति मजबूत कर ली । उसने कुल सात वर्षों (922-929 ई॰) तक राज्य किया । उसके समय की घटनाओं के विषय में कोई जानकारी नहीं मिलती हैं ।


अल्पकालीन शासक:
अम्म प्रथम का पुत्र विजयादित्य पंचम 929 ई॰ में पिता की मृत्यु के बाद राजा बना । यह केवल पन्द्रह दिनों तक राजा रहा । इसके वाद युद्धमल्वा द्वितीय के पुत्र ताल ने उसे गद्दी से हटा कर सिंहासन प्राप्त कर लिया । ताल युद्धमल्ल द्वितीय का पुत्र था । उसने संभवत: राष्ट्रकूटों की सहायता से गद्दी प्राप्त की थी ।
परन्तु एक महीने बाद एक-दूसरे दावेदार भीम प्रथम के पुत्र विक्रमादित्य द्वितीय ने उसे पदच्युत कर दिया । विक्रमादित्य द्वितीय ने लगभग एक वर्ष तक शासन किया । लेकिन इस अल्पावधि में ही उसने त्रिकलिंग को पुन जीत लिया जिसके ऊपर भीम प्रथम के बाद चालुक्यों का अधिकार समाप्त हो गया था ।
विक्रमादित्य को अम्म प्रथम के दूसरे पुत्र भीम द्वितीय ने अपदस्थ कर राज्य पर अधिकार कर लिया । आठ महीने के शासन के बाद ताल के पुत्र युद्धमल्ल द्वितीय ने उसे मार डाला । उसके इस कार्य में राष्ट्रकूट नरेश इन्द्र तृतीय ने सहायता प्रदान की । उसने एक बड़ी सेना चालुक्य राज्य में भेजी जिसकी सहायता से युद्धमल्ल भीम को पदच्युत करने में सफल रहा ।
युद्धमल्ल द्वितीय ने सात वर्षों (930-937 ई॰) तक राज्य किया । किन्तु वह नाम मात्र का ही राजा था तथा उसके समय में चालुक्य राज्य पर राष्ट्रकूटों का पूर्ण प्रभाव बना रहा । उसके अन्य भाई-बिरादर भी उसे हटाने के लिये षड़यन्त्र कर रहे थे ।
उसका काल अराजकता और अव्यवस्था का रहा । इस स्थिति से चालुक्य राज्य को छुटकारा दिलाने का श्रेय विजयादित्य चतुर्थ के पुत्र भीम द्वितीय को दिया जाता है जिसने राष्ट्रकूट सेनाओं को अपने साम्राज्य से बाहर भगाया तथा युद्धमल्ल को हटाकर 935 ई॰ में वेंगी का शासक वन बैठा ।
भीम की इस सफलता में राष्ट्रकूट राज्य में फैली अव्यवस्था का विशेष योगदान रहा । 930 ई॰ में गोविन्द के शासन के विरुद्ध उसके कुछ उच्च अधिकारियों ने बड्डेग तथा उसके पुत्र कत्नर के नेतुत्व में विद्रोह किया । इनका साथ कुछ अन्य सामन्तों ने भी दिया । गोविन्द उन्हें दवा नहीं सका तथा विद्रोह बढ़ता गया ।
इसी का लाभ उठाते हुए भीम ने अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी तथा वेंगी में पड़ी हुई राष्ट्रकूट सेना को पराजित कर बाहर भगा दिया । युद्धमल्ल के सामने हथियार डालने के अलावा दूसरा चारा नहीं था । भीम ने वारह वर्षों तक शासन किया । उसने विष्णुवर्धन, लोकाश्रय, राजमार्तण्ड, त्रिभुवनांकुश जैसी उपाधियाँ धारण कीं । किन्तु उसके समय की घटनाओं के विषय में कोई सूचना नहीं मिलती । उसने विजयवाड़ा में मल्लेश्वर स्वामी का मन्दिर बनवाया ।
xv. अम्म द्वितीय:
भीम द्वितीय के याद 947 ई॰ के लगभग उसका पुत्र अम्म द्वितीय राजा बना । उसे राजमहेन्द्र तथा विजयादिंता भी कहते हैं । उसके राजा बनने के उपरान्त युद्धमल्ल द्वितीय के पुत्रों-बादप तथा ताल द्वितीय ने (जो पिता की मृत्यु के बाद राष्ट्रकूट दरबार में भाग गये थे) कृष्ण तृतीय की सहायता पाकर वेंगी पर आकगण कर दिया ।
अम्म द्वितीय के कुछ अधिकारी भी उनसे जा मिले । मजबूर होकर अम्म को गद्दी छोड़नी पड़ी तथा बादप ने देंगी पर अधिकार कर लिया । उसने अपना नाम विजयादित्य रखा । उसके बाद उसका छोटा भाई विष्णुवर्धन नाम से राजा बना ।
किन्तु वह अधिक समय तक शासन नहीं कर सका तथा अम्म द्वितीय ने अपने उच्चाधिकारियों की सहायता से ताल को युद्ध में मारकर पुन वेंगी के राजसिंहासन पर अधिकार कर लिया । किन्तु उसकी स्थिति अधिक समय तक सुरक्षित नहीं रही तथा उसे राष्ट्रकूटों के संकट का सामना करना पड़ा ।
राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने 950 ई॰ में चोल राज्य को जीतने के बाद अपनी सेना देंगी विजय के लिये भेजी । उसने अम्म के सौतेले भाई दानार्णव को अपनी ओर मिला लिया । अम्म पराजित हुआ तथा उसने भागकर कलिंग वे शरण ली ।
कृष्ण ने अपनी ओर से दानार्णव को देंगी की गद्दी पर आसीन करवाया । कुछ समय बाद अम्म ने वेंगी पर फिर अधिकार कर लिया तथा 970 वर्ष तक शासन करता रहा । किंनु अन्तत वह दानार्णव द्वारा पराजित कर मार डाला गया ।
दानार्णव:
उसने मात्र तीन वर्षों तक राज्य किया । वह बराबर संघर्ष में उलझा रहा । 973 ई॰ में अम्म द्वितीय के साले चोड भीम ने दानार्णव की हत्या कर सिंहासन पर अधिकार जमा दिया ।
xvi. चोडभीम:
यह पेड्डकल्लु के तेलगुवंश का प्रमुख था । उसके वेंगी पर अधिकार करने के साथ ही कुछ समय के लिये वहाँ से चालुक्य शासन का अन्त हो गया । भीम एक शक्तिशाली राजा था । उसने अंग, कलिंग, द्रविड़ आदि के राजाओं को जीता तथा महेन्द्रगिरि से कांच । 
तक के तटीय प्रदेश एवं बंगाल की खाड़ी में लेकर कर्नाटक तक अपने राज्य को विस्तृत कर लिया । किन्तु यह अधिक समय सक निष्कंटक राज्य न कर सका । जिस समय चोड भीम ने दानार्णव की हत्या की थी, उसके पुत्रों-शक्तिवर्मा तथा विमलादित्य ने भागकर चोलशासक राजराज के दरबार में शरण ली थी । राजराज ने शक्तिवर्मा की सहायता के लिये एक सेना उसके साथ भेजी ।
इस सेना ने चोडभौम को कई युद्धों थे पराजित किया तथा शक्तिवर्मा को वेंगी की गद्दी पर आसीन कराने के बाद स्वदेश लौट गयी । चोडभीम ने कलिंग में शरण ली । किन्तु वह शान्त बैठने वाला नहीं था । चोल सेना के वापस लौटने के बाद उसने पुन: वेंगी पर आक्रमण कर शक्तिवर्मा को हराया और यहां अपना अधिकार जमा लिया ।
तत्पश्चात् उसने चोलों के नगर कांची पर भी आक्रमण कर वहाँ अपना अधिकार किया । किन्तु उसकी यह सफलता क्षणिक रही तथा राजराज ने उसके विरुद्ध अभियान छेड़ दिया । उसने भीम की सेनाओं को न केवल अपने साम्राज्य से बाहर भगाया अपितु विजय करते हुए कलिंग तक जा पहुँचा । चोडभौम 1003 ई॰ के लगभग युद्ध में मारा गया । राजराज ने शक्तिवर्मा को पुन वेंगी का शासक बना दिया ।
xvii. शक्तिवर्मा प्रथम:
यह दानार्णव का पुत्र था जो चोडभीम के बाद देगी का राजा बना । इसके साथ ही देंगी में चालुक्य वंश का शासन पुन स्थापित हुआ । उसने वेंगी में 12 वर्षों (999-1011 ई॰) तक राज्य किया । उसे चालुक्यचन्द तथा विन्मुवर्धन नामों से भी जाना जाता है । शक्तिवर्मा का शासन बारह वर्षों तक चला किनु उसके काल की घटनाओं के विषय में कोई गन नहीं है ।
वह जीवन-पर्यन्त चोली के अधीनता स्वीकार करता रहा । कल्याणी के पश्चिमी चालुक्यवंश के एक लेख से पता चलता है कि वहाँ के शासक सत्याश्रय ने मायलनष्टिं के नेतृत्व में एक सेना वेंगी पर आक्रमण करने को भेजी ।
इसने शक्तिवर्मा को हरा दिया किन्तु राजराज चोल ने उसकी सहायता की । चोल सहायता से वह अपना राज्य सुरक्षित रखने में सफल हुआ । 1011 ई॰ तक शक्तिवर्मा ने शासन किया । उसकी मृत्यु के बाद उसके छोटे भाई विमलादित्य ने सात वर्षों तक शान्तिपूर्वक शासन किया ।
xviii. राजराज नरेन्द्र:
1018 ई॰ में विमलादित्य की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र राजराज नरेन्द्र वेंगी का राजा बना । उसे अपने अनुज विजयादित्य के विरोध का सामना करना पड़ा । लेकिन चोल शासक राजेन्द्र की सहायता से उसने वेंगी की गद्दी पर अधिकार कर लिया । दोनों भाइयों का संघर्ष जारी रहा ।
विजयादित्य का समर्थन कल्याणी के चालुक्य कर रहे थे । उनकी सहायता पाकर विजयादित्य ने 1030 ई॰ में वेंगी की गद्दी भी प्राप्त कर ली । किन्तु 1035 ई॰ में राजराज ने पुन गद्दी प्राप्त कर ली । उसके समय में कल्याणी के चालुक्य शासक सोमेश्वर ने देंगी पर आक्रमण किया ।
राजराज के जमर्थन में राजेन्द्र चोल ने अपनी सेना भेजी । चोल-चालुक्य सेनाओं में युद्ध हुआ जिसका कोई परिणाम नहीं निकला । कुछ समय बाद सोमेश्वर ने वेंगी पर पुन आक्रमण किया तथा उसे जीत लिया । राजराज ने चोली के स्थान पर पश्चिमी चालुक्यों को अपना सम्राट स्वीकार किया ।
xix. विजयादित्य गुप्तम:
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है कि यह राजराज राजेन्द्र का छोटा भाई था । राजराज के वाद यह वेंगी के चालुक्य वंश का अन्तिम शासक हुआ । उसे कल्याणी के चालुक्यों का समर्थन प्राप्त था । राजराज से हारने के बाद उसने कल्याणी में शरण ली थी तथा उसे नोलम्बवाडि का सामन्त बनाया गया था ।
सिंहासन ग्रहण करने के बाद वह अपने पुत्र शक्तिवर्मा द्वितीय के पक्ष में उसे छोड़कर पुन नोलम्बवाद्धि चला गया । मात्र एक वर्ष के शासन के बाद शक्तिवर्मा चोली के विरुद्ध लड़ता हुआ मारा गया । इसके बाद विजयादित्य ने देंगी की गद्दी पुन: प्राप्त की ।
वह पहले चालुक्य नरेश सोमेश्वर के अधीन था । सोमेश्वर ने उसके नेतृत्व में एक सेना दक्षिण की ओर चोली से युद्ध करने के लिये भेजी । इसी बीच सोमेश्वर की मृत्यु हो गयी । विजयादित्य को चोली की अधीनता माननी पड़ी । 1068 ई॰ तक वह चोलों के सामन्त के रूप में शासन करता रहा ।
चोल शासक वीर राजेन्द्र ने उसे वेंगी का राजा बनवा दिया विजयादित्य के भतीजे राजेन्द्र ने उसका विरोध किया किन्तु कीलग के गगशासक देवेन्द्रवर्मा की मदद पाकर उसने देंगी का राज्य पुन पा लिया । उसने 1072-73 ई॰ तक वेंगी में किसी न किसी प्रकार शासन किया ।
तत्पश्चात् उसके राज्य पर चेदियों तथा कलिंग के गंगों ने अधिकार कर लिया । विजयादित्य वेंगी छोड़कर कल्याणी नरेश सोमेश्वर द्वितीय के दरबार में चला गया तथा नोलम्बवाडि में सामन्त के रूप में शासन करने लगा । वहीं रहते हुए 1075 ई॰ में उसकी मृत्यु हुई ।
उसके साथ ही देंगी के पूर्वी चालुक्य वंश का अन्त हुआ । 1011 तथा 1063 ई॰ के बीच वेंगी में कई छोटे-छोटे राजाओं ने शासन किया जिसके शासन-काल का कोई महत्व नहीं था । अन्तत: वेंगी का चालुक्य राज्य चोल-राज्य मिला लिया गया ।

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