पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानीं।।
अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।
जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्मणी का बेटा घर से निकल पड़ा और धारापुर आया। हे राजन्! वहां के राजा तुम्हारे पिता थे। उस लड़के ने राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में ले करके उज्जैन पहुंचा। संयोग की बात है कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य गद्दी पर बैठें।
एक दिन राजा विक्रमादित्य को राजा बाहुबल के बारे में पता चला कि जिस गद्दी पर वह बैठे हैं वह राजा बहाहुबल की कृपा से है। पंडितों ने सलाह दी कि हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जब तक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगें, तब तक आपका राज्य अचल नहीं होगा। आप उनसे राजतिलक करवाओ।
विक्रमादित्य ने कहा, 'अच्छा।' और वह अपने ज्ञानी और विश्वसनीय साथी लूतवरण को साथ लेकर वहां गए। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया। पांच दिन बीत गए। लूतवरण ने विक्रमादित्य को सलाह दी कि, 'जब आप विदा लेगें तब राजा बाहुबल आपसे कुछ मांगने को कहेगें।
राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे साक्षात महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और बाद में इन्द्र ने बाहुबल को दिया। उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उस पर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखंड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत-से जवाहरात जड़े हैं। उसमें सांचे में ढालकर बत्तीस पुतलियां लगाई गई है। हे राजन्! तुम उसी सिंहासन को मांग लेना।'
अगले दिन जब विक्रमादित्य विदा लेने गए तो उसने वही सिंहासन मांग लिया। राजा बाहुबल वचन से बंधे थे। बाहुबल ने विक्रमादित्य को उस पर बिठाकर राजतिलक किया और बड़े प्रेम से विदा किया।
राजा विक्रमादित्य ने लौटते ही सभा की और पंडितों को बुलाकर कहा, 'मैं एक अनुष्ठान करना चाहता हूं। आप देखकर बताएं कि मैं इसके योग्य हूं या नहीं।'
पंडितों ने कहा, 'आपका प्रताप तीनों लोकों में छाया हुआ है। आपका कोई बैरी नहीं। जो करना हो, कीजिए।'
अपने खानदान के सब लोगों को बुलाइए, सवा लाख कन्या दान और सवा लाख गायें दान कीजिए, ब्राह्मणों को धन दीजिए, जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिए।'
इतना कहकर पुतली रत्नमंजरी बोली, 'हे राजन्! आपने अगर कभी ऐसा दान किया है तो सिंहासन पर अवश्य बैठें।'
पुतली की बात सुनकर राजा भोज निराश हो गए- 'आज का दिन तो गया। अब तैयारी करो, कल सिंहासन पर बैठेंगे।'
इस तरह सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली ने राजा भोज को नहीं बैठने दिया और अगले दिन दूसरी पुतली चित्रलेखा ने सुनाई राजा विक्रमादित्य की कहानी।
अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।
जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्मणी का बेटा घर से निकल पड़ा और धारापुर आया। हे राजन्! वहां के राजा तुम्हारे पिता थे। उस लड़के ने राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में ले करके उज्जैन पहुंचा। संयोग की बात है कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य गद्दी पर बैठें।
एक दिन राजा विक्रमादित्य को राजा बाहुबल के बारे में पता चला कि जिस गद्दी पर वह बैठे हैं वह राजा बहाहुबल की कृपा से है। पंडितों ने सलाह दी कि हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जब तक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगें, तब तक आपका राज्य अचल नहीं होगा। आप उनसे राजतिलक करवाओ।
विक्रमादित्य ने कहा, 'अच्छा।' और वह अपने ज्ञानी और विश्वसनीय साथी लूतवरण को साथ लेकर वहां गए। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया। पांच दिन बीत गए। लूतवरण ने विक्रमादित्य को सलाह दी कि, 'जब आप विदा लेगें तब राजा बाहुबल आपसे कुछ मांगने को कहेगें।
राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे साक्षात महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और बाद में इन्द्र ने बाहुबल को दिया। उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उस पर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखंड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत-से जवाहरात जड़े हैं। उसमें सांचे में ढालकर बत्तीस पुतलियां लगाई गई है। हे राजन्! तुम उसी सिंहासन को मांग लेना।'
अगले दिन जब विक्रमादित्य विदा लेने गए तो उसने वही सिंहासन मांग लिया। राजा बाहुबल वचन से बंधे थे। बाहुबल ने विक्रमादित्य को उस पर बिठाकर राजतिलक किया और बड़े प्रेम से विदा किया।
राजा विक्रमादित्य ने लौटते ही सभा की और पंडितों को बुलाकर कहा, 'मैं एक अनुष्ठान करना चाहता हूं। आप देखकर बताएं कि मैं इसके योग्य हूं या नहीं।'
पंडितों ने कहा, 'आपका प्रताप तीनों लोकों में छाया हुआ है। आपका कोई बैरी नहीं। जो करना हो, कीजिए।'
अपने खानदान के सब लोगों को बुलाइए, सवा लाख कन्या दान और सवा लाख गायें दान कीजिए, ब्राह्मणों को धन दीजिए, जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिए।'
इतना कहकर पुतली रत्नमंजरी बोली, 'हे राजन्! आपने अगर कभी ऐसा दान किया है तो सिंहासन पर अवश्य बैठें।'
पुतली की बात सुनकर राजा भोज निराश हो गए- 'आज का दिन तो गया। अब तैयारी करो, कल सिंहासन पर बैठेंगे।'
इस तरह सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली ने राजा भोज को नहीं बैठने दिया और अगले दिन दूसरी पुतली चित्रलेखा ने सुनाई राजा विक्रमादित्य की कहानी।
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