1857 के विद्रोह की प्रकृति का वर्णन | 1857 The First War Of Independence Full Detail

Mr. Parihar
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1857 की क्रान्ति |1857 Ki Kranti (Revolution) in Hindi | 1st War of Independence 

भारत में आजादी भले ही 1947 में मिली परंतु इसके लिए संघर्ष लगभग सौ वर्ष पूर्व ही आरंभ हो चुका था. वास्तव में इस 1857 की क्रान्ति का स्वर्णिम इतिहास ही कालान्तर में कई स्वतंत्रता सेनानियों के लिए प्रेरणादायी बना. ये क्रान्ति तब हुई थी जब नेटवर्क की ज्यादा विकसित सुविधाए नहीं थी, केंद्र में अंग्रेजों की सत्ता को हिलाने के लिए कोई नेतृत्व भी नहीं था और नाही कोई संगठित समूह या निर्धारित योजना थी,जिससे क्रान्ति को सफल बनाया जा सके. लेकिन सैन्य वर्ग से लेकर आम-जनों में अंग्रेजों के खिलाफ फैले आक्रोश को अपना लक्ष्य दिखने लगा था. उस समय ही शासक वर्ग से लेकर सैनिकों,मजदूरों, किसानों यहाँ तक कि कुछ जन-जातियों को भी स्वतंत्रता और स्वायत्ता का महत्व समझ आया. ये क्रान्ति असफल जरुर रही लेकिन इसने देश के लिए एक सुनहरे भविष्य की नीव रख दी थी.
ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे भगवान बिरसा मुंडा। भगवान् बिरसा मुंडा के बारे में जानने के लिए यहाँ पढ़े। 
 1857 की क्रान्ति शुरुआत कहाँ हुई थी??( 1857 revolution begin date and place)
29 मार्च 1857 को बैरकपुर में मंगल पांडे के नेतृत्व में ये क्रान्ति शुरू हुयी थी. इतिहास में क्रांति की शुरुआत 10 मई 1857 से मानी जाती हैं जब मेरठ के सिपाहियों ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के खिलाफ बगावत कर दी थी. इस तरह बैरकपुर और मेरठ से शुरू हुयी ये क्रान्ति जल्द ही दिल्ली, कानपूर, अलीगढ, लखनऊ, झांसी, अल्लाहबाद, अवध और देश कई अन्य हिस्सों तक पहुँच गयी थी.

First War Of Independence


लार्ड केनिंग(1857 की क्रांति की जीत का प्रमुख व्यक्ति)

लार्ड केनिंग को 1856 में भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया था उनका कार्यकाल 1862 तक रहा था. इस दौरान गवर्मेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट,1858 भी पास हुआ जिसके अनुसार भारत के गवर्नर जनरल को ही वायसराय घोषित किया गया,इस तरह लार्ड केनिंग भारत के पहले वायसराय बने. उनके वायसराय बनते ही 1857 की क्रांति हो गयी जिसे विफल करने में वो कामयाब रहे. यह ब्रटिश सरकार की भारत की जनता के ऊपर एक बड़ी जीत साबित हुई और इसका सारा शेर्य लार्ड केनिन को दिया गया

1887 की क्रान्ति के कारण (causes of the 1857 Revolution)

1857 की क्रांति एक दिन में हुईं सामान्य सी विद्रोह की क्रान्ति नहीं थी,इस क्रान्ति को पनपने और देश भर में फैलने में काफी समय लगा था. उस समय अंग्रेजों के कारण भारतीय समाज में काफी असंतुलन पैदा हो गया था. ब्रिटिश ऑफिसर और भारतीयों में भेदभाव बढ़ गया था. ब्रिटिश अफसर भारतीय अफसरों के साथ घुलते-मिलते नहीं थे.भारत की आम जनता और अफसरों को उन रेस्टोरेंट,पार्क और क्लब में जाने की अनुमति नहीं थी जहाँ ब्रिटिश जाते थे. भारतीयों को रंग के भेदभाव और सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता था. इसके अलावा अंग्रेजों को लगा कि भारतीयों के लिए उनका धर्म सबसे बड़ा हैं इसलिए उन्होंने भारतीयों की धार्मिक भावना को चोट पंहुचाना शुरू कर दिया,जिसे समाज में रोष फैलने लगा. इसके पीछे कई कारण थे,जिनमें राजनीतिक,सैन्य,धार्मिक और सामजिक कारण मुख्य थे.

 सैन्य कारण (Military Cause)

अंग्रेजों के खिलाफ होने वाले सैन्य आन्दोलन के पीछे बहुत सारे कारण थे.
1806 से ही भोपाल के सिपाही अंग्रेजों से नाराज थे,क्योंकि उन्हें तिलक लगाने, सर पर टोपी पहनने से निषेध कर दिया गया था. सबसे पहले 1806 में सैन्य विद्रोह वेल्लोर में हुआ था जो कि 1824 तक बंगाल पहुच गया था और 1844 में सिंध और रावलपिंडी तक पहुच गया था.
भारतीय सैनिकों को अंग्रेज सैनिकों से कम मेहनताना मिलता था. सैनिकों को मिलने वाले भोजन की गुणवत्ता खराब होती थी. ब्रिटिश अधिकारियों का भारतीय सैनिकों के प्रति व्यवहार ख़राब था. भारतीय सैनिकों को अपने घर-परिवार से दूर युद्ध पर भेजा जाता था.
भारतीय सैनिकों का वेतन 9 रूपये प्रति माह था और इसी के साथ हिन्दू सैनिक कालापानी तक जाने के लिए समुन्द्र को पार करने के कारण भी गुस्से में थे
इस दौरान ही एनफील्ड राइफल भी आर्मी में लायी गई जो कि 1857 की क्रांति का सबसे बड़ा कारण बनी. इस राइफल की बुलेट पर ग्रीज का पेपर लगा होता था. सैनिक को अपने दांतों से इसे हटाना होता था,हिन्दू और मुस्लिम ने इसका विरोध किया,क्योंकि हिन्दुओं को लगता था कि इसमें गाय की चर्बी का इस्तेमाल हुआ हैं जबकि मुस्लिमों को लगा कि इसमें सूअर की चर्बी का उपयोग किया गया है. इससे दोनों पक्षों की धार्मिक भावनाए आहत हो गयी , मंगल पांडे के नेतृत्व में सैनिकों ने विद्रोह छेड दिया. ये विद्रोह सैनिकों ने किया था इसलिए इसे अंग्रेजों ने सैन्य विद्रोह की संज्ञा दी. जब ये विद्रोह दिल्ली पंहुचा तो क्रांतिकारियों ने बहादुर शाह जफ़र को इस क्रांति का लीडर घोषित कर दिया

राजनैतिक कारण (Political Cause)

प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों के निरंकुश शासन से सभी वर्गों में आक्रोश था. इन सबमे भी लार्ड डलहौजी की नीतिया उन कारणों में से एक थी,जिससे ये क्रान्ति हुयी.
डलहौजी ने अवध, नागपुर, झाँसी, सतारा, नागपुर, सम्बलपुर, सूरत और ताजोर की आम जनता के साथ शासकों को भी नाराज किया था. संथल,भील,खासी,जाट और फेराजी भी ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ जंग में उतर चुके थे.
भारतीय शासकों में पुत्र गोद लेना एक पुरानी परम्परा थी,लेकिन इस प्रथा को अस्वीकार करके डलहौजी ने लोगों में गुस्सा बढ़ा दिया था. झांसी की रानी लक्ष्मीबाईऔर नाना साहेब भी डलहौजी के इस नीति के विरोध में थे.
क्लाइव के अच्छे शासन के लिए लायी गयी दोहरी नीति से भारत में अकाल पड़ गया. जब बहादुर शाह द्वितीय से मुग़ल शासक की गद्दी छीन ली गयी तब मुस्लिम वर्ग ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ एकजुट हो गया.

आर्थिक कारण (Economical Cause)

प्लासी के युद्ध के बाद देश में गरीबी बढ़ गयी थी क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने भारत से डायमंड, सोना, चांदी और अन्य बेशकीमती वस्तुएं छीन ली थी. हमारे देश में आम जनता से एकत्र किया हुआ कर(tax) इंग्लैंड जाता था.
1833 ईस्वी के चार्टर एक्ट ने बहुत से यूरोपियन कंपनी को भारत में व्यापार करने की अनुमति दे दी थी,जिससे भारत पर आर्थिक दबाव बढ़ गया था. अंग्रेज यहाँ से कच्चा माल कम दरों पर खरीदकर यही पर उच्चे दामों में रेडीमेड चीजें बेचने लगे थे.
भारत का बाजार मैनचेस्टर कपड़ों से भर गया था जिसके कारण आखिर में यहाँ की हेंडीक्राफ्ट इंडस्ट्री खत्म ही हो गई. इस तरह से चीजों की कीमत बढ़ जाने और आमदनी कम होने के कारण यहाँ अकाल और महामारी फैलने लगी.
दीवानी हासिल करने के बाद जमीनों की लागत भी बढ़ गयी थी. भारतीयों का वेतन अंग्रेजों से बहुत कम था,जिससे आर्थिक असंतुलन पनपने लगा था. भारत के छोटे-छोटे उद्योगों को समाप्त किया जाने लगा था यहाँ की क्राफ्टसमैन ,मजदूर और किसान गरीब होने लगे थे. ये सभी वर्ग बढे हुए करों का बोझ भी नहीं उठा पा रहे थे. 

धार्मिक कारण(Religious Cause)

भारत की बहुत बड़ी जनसंख्या पश्चिमी सभ्यता के कारण आये परिवर्तन के साथ सामंजस्य नहीं बना पा रही थी.1850 में हिन्दू लॉ में आये परिवर्तन से वो हिन्दू जिसने धर्म परिवर्तन कर क्रिश्चन बना हैं वो भी अपने पैत्रक सम्पति में उतराधिकार रख सकता था. मिशनरी पूरे भारत में क्रिश्चियनिटी फैला रहे थे.
सती प्रथा और कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ और विधवा विवाह के पक्ष में बने कानून को समाज की परम्पराओं को तोड़ने की कोशिश के रूप में देखा जाने लगा. रेलवे और टेलीग्राफ को भी शक की नजर से देखा जाने लगा.
इसके अलावा सैन्य कारण में लिखा पॉइंट ४ भी धार्मिक कारणों में गिना जा सकता है।

क्रान्ति की जगह और नेता (Centres/Places where the revolt took place and leaders)

1857 की क्रान्ति का प्रभाव पटना से लेकर राजस्थान तक फैला था. इस समय कानपूर, लखनऊ, बरेली, झाँसी, ग्वालियर और बिहार के कुछ जिले मुख्य रूप से इसमें शामिल थे जहाँ विद्रोह ज्यादा था. क्रान्ति भले सब जगह एक साथ और एक ही समय में ना हुई हो,लेकिन अंग्रेजों को अलग-अलग जगह पर विभिन्न स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व में कई छोटे-बड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा ,जिसका ब्रिटिश हुकुमत पर गहरा प्रभाव पड़ा.
दिल्ली– यहाँ पर मुगल शासक बहादुर शाह जफर के साथ जनरल बख्त खान ने क्रान्ति कि अगुआई की,वो बरेली की फ़ौज को दिल्ली लेकर आये थे.

लखनऊ– ये जगह तब अवध की राजधानी हुआ करती थी. यहाँ पर अवध के पूर्व राजा कि पत्नी बेगम हजरत महल ने क्रान्ति की अगुआई करी. बेगम के पुत्र बिरजिस कादिर को नवाब घोषित किया गया और उनके नेतृत्व में हिन्दू-मुस्लिम को एक समान महत्वपूर्ण पद दिए गये थे. अवध की पुरानी सेना के बिखरने के कारण कुछ विद्रोही सैनिक भी इस सेना में भर्ती हुए,और अंग्रेजों से युद्ध किया. आखिर में लखनऊ पर ब्रिटिश सेना ने कब्ज़ा कर लिया,और रानी नेपाल भाग गई.

कानपुर – यहाँ से क्रान्ति का नेतृत्व पेशवा बाजीराव द्वितीय नाना साहेब कर रहे थे,उन्होंने क्रान्ति का साथ इसलिए दिया था क्युकी उनकी पेंशन ब्रिटिश सरकार ने बंद कर दी थी. उन्होंने कानपुर पर कब्जा कर लिया और खुद को पेशवा घोषित कर दिया. हालांकि उनकी यह विजय बहुत कम दिन तक बनी रही,और जल्द ही कानपूर पर ब्रिटिशर्स ने वापिस कब्ज़ा कर लिया. क्रान्ति को अंग्रेजों ने क्रुरतापूर्वक दबा दिया. नाना साहेब तो बचकर भाग निकले लेकिन उनके सेनापती तात्या टोपे ने जंग ज़ारी रखी और आखिर में वो ब्रिटिशर्स से लड़ते हुए शाहिद हुए.

झांसी – यहाँ पर झाँसी के महाराजा गंगाधर राव नेवालकर की मृत्यु हो जाने के कारण रानी लक्ष्मीबाई ने क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया,क्योंकि अंग्रेजों ने लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को राजा मानने से मना कर दिया था. उन्होंने अंग्रेजो से युद्ध किया जिसमे तात्या टोपे ने उनका साथ दिया. उन दोनों ने मिलकर ग्वालियर जीत लिया था. हालांकि बाद में अंग्रेजों ने ग्वालियर को वापिस जीत लिया था.लक्ष्मीबाई भी युद्ध करते हुए शहीद हुई थी.
बिहार में 70 वर्षीय कुंवर सिंह ने क्रान्ति का नेतृत्व किया था. वो जगदीशपुर के जमींदार थे, और वें अंग्रेजों से उनका राज्य छीनने के कारण खफा थे.

फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्लाह भी क्रान्ति के नेता थे, मई 1857 में अवध की क्रांति के समय उनका नाम सामने आया था.
बरेली के खान बहादुर अंग्रेजों द्वारा दी जाने वाली पेंशन से संतुष्ट नहीं थे,उन्होंने 40,000 की सेना के साथ अंग्रेजों का सामना किया.
बैरकपुर : मंगल पांडे ब्रिटिश शासनकाल में एक सैनिक थे. 1857 की क्रांति की शुरुआत का श्रेय भी उन्हें ही जाता हैं. भारत में उस समय नयी एनफील्ड राइफल का उपयोग शुरू हुआ था. ये अफवाह थी कि इसमें गाय और सूअर की चर्बी का उपयोग किया गया हैं,इसलिए इससे हिन्दू और मुस्लिम धर्मो की भावनाएं आहात हो गयी. मंगल पण्डे जो कि एक कट्टर ब्राह्मिण थे,उन्होंने इसके उपयोग से ना केवल मना कर दिया बल्कि ब्रिटिश सरकार के खिलाफ एक्शन लेने की भी सोची. कलकत्ता के नजदीक बैरकपुर में 29 मार्च 2857 के दिन दोपहर में इन्होंने ब्रिटिश सार्जेंट और उनके सहायक को घायल कर दिया. पांडे के साथी सैनिकों ने भी इसमें उनका साथ दिया,इस कारण मंगल पांडे को मृत्यु दंड दिया गया.

संक्षिप्त वर्णन :

जगह क्रांतिकारी नेता का नाम
कानपुर नानासाहेब
लखनऊ बेगम हजरतमहल
बरेली खान बहादुर
बिहार कनुवार्सिंह
फैजाबाद मौलवी अहमदुल्लाह
झांसी रानी लक्ष्मीबाई
दिल्ली जनरल बख्त खान
कुल्लू राजा प्रताप सिंह
गोरखपुर गजधर सिंह        
मथुरा सेवी सिंह,कदम सिंह
मंदसौर फ़िरोज़ शाह
आसाम कन्दपरेश्वर सिंह,मनीराम दत्ता
उड़ीसा सुरेन्द्र शाही,उज्जवल शाही
राजस्थान जयदयाल सिंह और हरदयाल सिंह

क्रांति के असफल होने के कारण(Causes of the failure in 1857 revolution)

1857 की क्रान्ति सफल ना हो सकी, लेकिन इसने भारतीय जन-मानस पर काफी प्रभाव छोड़ा,जिसका परिणाम देश ने 100 वर्ष उपरान्त स्वतन्त्रता के पहले संग्राम के रूप में देखा. इसकी असफलता के कई कारण रहे-
इस क्रान्ति के लिए कोई प्लानिंग नहीं थी ना कोई संगठन था. अलग-अलग जगहों पर होने के कारण भी इस क्रान्ति को दिशा नहीं मिल सकी,साथ ही हर जगह होने वाली क्रांति का समय भी अलग था. जिससे किसी भी इलाके में क्रान्ति की चिंगारी सुलगते ही अंग्रेज सतर्क हो जाते थे,और वो इसके दमन के लिए तैयार रहने लगे थे.
हर नेता का एजेंडा अलग था, हालांकि सभी नेता अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ थे,लेकिन उनके एक साथ संगठित होकर क्रान्ति नहीं करने से वो अंग्रेजों के सामने कमजोर थे.
बहुत सारी जगहों पर सामान्य-जन क्रान्ति की क्रूरता और इसके परिणामों से डरे हुए थे, क्योंकि इससे पहले भारतियों ने सत्ता के विरुद्ध कोई ऐसा सीधा युद्ध नही देखा था,जो समाज के बीच में से निकलकर आये.
क्रांतिकारी जहाँ अपने पुराने हथियारों जैसे तलवार,तीर-कमान से लड़ रहे थे वही अंग्रेजों के पास अत्याधुनिक हथियार थे, जिससे उनके जीत की सम्भावना बढ़ गयी थी.
कश्मीर,राजस्थान और पटियाला के शासक भी अंग्रेजों के साथ थे,जिससे क्रांतिकारीयों की शक्ति कम हो गयी थी. बड़े जमींदार और शाही घराने अंग्रेजों के साथ थे. इनके अलावा शिक्षित मिडील और अपर क्लास के लोग भी अंग्रेजों के पक्ष में थे,जिन्होंने क्रांतिक्रारीयों की बातों को अंध-विशवास और समाज की प्रगति के विरुद्ध घोषित कर दिया था.
ये क्रान्ति भारत के कुछ हिस्सों मे ही हुई थी जिसमे भी विशेष उत्तर-पश्चिम भारत था,इसमें दक्षिण और पूर्वी भारत के इलाके जैसे मद्रास,बॉम्बे,बंगाल के अलावा पश्चिमी पंजाब भी इस क्रान्ति से अछुता रहा था.


1857 की क्रान्ति के प्रभाव ( Long-term and short-term impact)

1857 की क्रान्ति के दीर्घकालीन और अल्प कालीन दोनों प्रभाव देखने को मिले. वास्तव मे भारत को 90 वर्ष पूर्व ही स्वतन्त्रता मिल सकती थी लेकिन ये क्रान्ति असफल रही इस कारण इसके प्रभाव अगले 100 वर्षों तक सामने आते रहे.
1857 की क्रान्ति के बाद अल्प-कालीन प्रभाव (Immediate effects of 1857 revolution)
इसके अल्प कालीन प्रभाव अगले 3 वर्षो तक परिलक्षित हुए. अंग्रेजों द्वारा घोषित इस सैन्य विद्रोह के बाद ब्रिटिश मुगल राज्य को खत्म करने के साथ ही ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन हटाकर क्वीन विक्टोरिया का शासन लागू किया गया. रानी विक्टोरिया को भारत से विशेष लगाव था और उनके पास भारत सम्बन्धित मसलों के लिए निजी सलाहकार भी नियुक्त था. भारतीयों ने रानी के सीधे शासन का स्वागत किया,1877 में रानी को भारत की साम्राज्ञी घोषित कर दिया गया.

भारत में ब्रिटिश आर्मी में ज्यादातर सिपाही ही थे, हर नौवा सिपाही ब्रिटिश था. ब्रिटिश सरकार ने सिपाहियों की संख्या 40% तक कम कर दी और ब्रिटिश फौजों को 50% तक बढ़ा दिया जिससे भारतीय सैनिको और ब्रिटिश सैनिकों का अनुपात 1:3 हो गया. सिपाहियों की नियुक्ति का तरीका भी बदल गया.
1857 से पहले सिपाही हिन्दू ब्राह्मण या राजपूत होते थे, जो कि क्रांतिकारी दल में शामिल हो गये थे, इसलिए अंग्रेजों ने सिख्क और उत्तर-पूर्व के मुस्लिमों को लेना शुरू किया जो की ब्रिटिश ताज के ज्यादा वफादार हुआ करते थे.
ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों को ये आश्वासन दिया की वो अब क्षेत्रीय विस्तार नहीं करेंगे,उन्होंने यह भी कहा कि अब से सामजिक या धार्मिक मुद्दो में वो हस्तक्षेप नहीं करेंगे.
ज़मीदारों और जमीन मालिकों के अधिकारों की रक्षा लिए नीतियां बनाई गयी. मुस्लिमों को क्रांति का जिम्मेदार माना गया इसलिए उनकी जमीन और सम्पति को जब्त कर लिया गया.

1857 की क्रान्ति के दीर्घकालीन प्रभाव (Long Term effects of 1857 revolution)

1857 की क्रांति अंग्रेजी हुकुमत और आम-जनता के बीच दूरी बढा दी थी. क्रान्ति के बाद के समय में भारत में अपना प्रभुत्व बनाये रखेने के लिए ब्रिटिश शासकों ने फूट डालो राज करो का अजेंडा अपनाया. और लोगों में धार्मिक कट्टरता का जहर बो दिया. क्रांति के बाद हालांकि ब्रिटिश ने जमीनी विस्तारीकरण कम किया लेकिन उन्होंने आर्थिक शोषण के एक नये युग की शुरुआत कर दी.
1857 की क्रांति के बाद से ब्रिटिश ने शिक्षित मिडिल क्लास का विरोध और जमीदारों और राजा महराजाओ का सपोर्ट करना शुरू कर दिया. जिससे समाज में दो वर्ग बन गए,शोषक और शोषितों के बीच में दूरी बढने लगी और आम-जन में अंग्रेजों के खिलाफ आक्रोश फैलने लगा.

1857 की क्रान्ति का नामकरण (Nomenclature for this revolt)

1857 की क्रान्ति को इतिहास में कई नाम मिले. किसी ने इसे “1857 का विद्रोह ” कहा किसी ने “1857 का ग़दर”. अंग्रेजों ने जहाँ इसे सैन्य विद्रोह कहां वही सावरकर ने इसे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया. अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीयों में हो रही जन-जाग्रति को दबाना था,इसलिए उन्होंने माना कि ये कुछ सिपाहियों के विद्रोह था,जबकि कार्ल मैक्स पहले अंग्रेज थे जिन्होंने इसे राष्ट्रीय क्रान्ति कहां. वीर सावरकर ने 1909 में 1857 का स्वातंत्र्य समर नाम की किताब लिखी,ये किताब मराठी में थी,लेकिन इसके हिंदी,अंग्रेजी और विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हुए जिससे कि कई स्वतन्त्रता-सेनानियों को प्रेरणा मिली. देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु ने इसे प्रथम स्वतंत्रता संग्राम मानने पर जोर दिया. वास्तव में स्वतंत्रता के बाद 1857 की क्रान्ति पर इतिहासविदों ने शोध करके विभिन्न मत दिए,जिनमें कुछ ने इसे भारतीय स्वतंत्रता का पहला संग्राम नही माना. 

इन लोगों ने इस पर किताबें लिखी,
लेखक किताब का नाम वर्ष

आरसी मजुमदार सैन्य विद्रोह और 1857 की क्रान्ति 1957

एसबी चौधरी सिविल रिवोल्ट इन दी इंडियन म्युटिनीज1857-59 1957

एसबी चौधरी थ्योरीज ऑफ़ दी इंडियन म्युनिटी 1965

एस एन सेन एटिन फिफ्टीसेवेन 1957

केके दत्ता रिफ्लेक्शन ऑन दी म्युटिनी 1967

कुछ साउथ इंडियन इतिहासविदों ने भी इसे स्वतंत्रता का पहला संग्राम से मानने से इनकार किया और इस मामले को कोर्ट तक लेकर गए. उनका मानना था कि1806 में वेल्लोर में विद्रोह के बाद 1857 की क्रान्ति हुयी थी,इसलिए इसे पहला संग्राम नहीं माना जा सकता. 2007 मे कुछ सिख ग्रुप्स ने भी कहा कि 1845-46 में हुआ एंग्लो-सिख युद्ध प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हैं.

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